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________________ ३०८] [ मूलाचारे सम्मइंसणणाणेहि भाविदा सयलसंजमगुणेहि। णिटुवियसव्वकम्मा णिग्गंथा णिवुदि जंति ॥११८७॥ सम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यां भाविताः सकलसंमयगुणश्च भाविता यथाख्यातसंयमविशुद्धिद्धिता निष्ठापितसकर्माणः विनाशितसर्वकर्मबन्धाः सन्तो निर्ग्रन्था अनन्त चतुष्टयसहाया निवृति यान्ति नात्र सन्देह इति । ॥११८७॥ अथ ते तत्र गत्वा कीदृग्भूतं सुखमनुभवन्ति कियन्तं कालमधितिष्ठन्तीत्याशंकायामाह ते अजरमरुजममरमसरीरमक्खयमणुवमं सोक्खं । अव्वाबाधमणतं अणागदं कालमत्थंति ॥११८८॥ ते मक्ति प्राप्ता अजरं न विद्यते जरावस्था वद्धत्वं यत्र तदजरं, न विद्यते रुजा रोगो यत्र तदरुजं, न म्रियते यत्र तदमरम्, अशरीरम् औदारिकादिपंचशरीररहितं, अक्षयं क्षयरहितं शाश्वतं सुखं अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपं, अव्याबाधम् अन्योपघातविनिर्मुक्तं, अनन्तमनागतं कालमधितिष्ठन्ति भविष्यत्कालपर्यन्तं परमसुखे निमग्नास्तिष्ठन्तीति ॥११८८॥ गाथार्थ-सम्यग्दर्शन और ज्ञान से अपने को भावित करके सम्पूर्ण संयम और गुणों के द्वारा सर्व कर्मों को समाप्त करके निर्ग्रन्थ मुनि निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। ॥११८७॥ प्राचारवृत्ति-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अपनी आत्मा को भावित करके तथा यथाख्यातसंयम की विशुद्धि से वृद्धिंगत हुए सर्व कर्मों का विनाश करके वे निर्ग्रन्थ महामुनि अनन्तचतुष्टय से सहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। __वे वहाँ जाकर सुख का अनुभव करते हुए कितने काल तक वहां ठहरते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-वे जरारहित, रोगरहित, मरणरहित, शरीररहित, क्षयरहित, उपमारहित और बाधारहित अनन्त सौख्य में भविष्यत् कालपर्यन्त ठहरते हैं ।।११८८॥ आचारवत्ति-जिसमें वृद्धावस्था नहीं है वह अजर है। जिसमें रोग नहीं है वह अरुज है। जहां मरण नहीं है वह अमर है । औदारिक आदि पाँच शरीरों से रहित को अशरीर कहते हैं। क्षय रहित शाश्वत को अक्षय तथा अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप उपमा रहित को अनुपम कहते हैं। अन्य के द्वारा जिसमें बाधा न हो वह अव्याबाध है । जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान् अजर, अरुज, अमर, अशरीर, अक्षय, अनुपम, अव्याबाध और अनन्त सौख्य का अनुभव करते हैं तथा आनेवाले अनन्त भविष्य कालपर्यन्त परमसुख में निमग्न हुए स्थित बहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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