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________________ पर्याप्स्यषिकारः । [ ३०७ शक्रः सौधर्मेन्द्र: सहाग्रमहिषी अवमहिषी शची तया सह वर्तत इति साग्रमहिषीका:, सलोकपालाः लोकान् पालयन्तीति लोकपालाः चरारक्षिकसमानास्तैः सह वर्तन्ते इति सलोकपालाः दक्षिणेन्द्राश्च दक्षिणशब्दः सूत्रनिर्देशे प्रथमोच्चारणे वर्तते तेन सानत्कुमारब्रह्मलान्तवशुत्रशतारानतारणेन्द्राणां ग्रहणं च शब्देनान्येषां च, लौकान्तिकाश्च सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्चाष्टप्रकारा ब्रह्मलोकवासिनो देवर्षयो नियमाच् च्युता मनुष्यक्षेत्रमागता निर्वति यान्ति । सौधर्मो मनुष्यत्वं प्राप्य मोक्ष याति तथा तस्याग्रमहिषी लोकपालाश्च मनुष्यत्वं प्राप्य नियमतो निर्व ति यान्ति तथा दक्षिणेन्द्रा लौकान्तिकाश्च चरमदेहतां प्राप्य निश्चयेन मुक्ति गच्छन्ति स्फुटमेतन्नात्र सन्देह इति ॥११८५॥ गत्यागत्यधिकारं समुच्चयन्नाह--.. एवं तु सारसमए भणिदा दु गदागदी मया किंचि । णियमादु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादं ॥११८६॥ एवं तु-अनेन प्रकारेण, सारसमए-व्याख्याप्रज्ञप्त्यां सिद्धान्ते तस्माद्वा भणिते गत्यागतीगतिश्च भणिता आगतिश्च भणिता मया किचित् स्तोकरूपेण। सारसमयादुद्धृत्य गत्यागतिस्वरूपं स्तोकं मया प्रतिपादितमित्यर्थः । निर्व तिगमनं पुनर्मनुष्यगत्यामेव निश्चयेनानुज्ञातं जिनवरैर्नान्यासु गतिषु तत्र संयमाभावादिति ।।११८६॥ अथ कैः किम्भूताः कैः कृत्वा निर्व ति यान्तीत्याशंकायामाह प्राचारवत्ति-सौधर्म स्वर्ग का प्रथम इन्द्र शक है, उसकी अग्र महिषी का नाम शची है। उसके चार दिशा सम्बन्धी सोम, यम, वरुण और कुबेर ये चार लोकपाल होते हैं। दक्षिण दिशा सम्बन्धी दक्षिणेन्द्र हैं, वे सौधर्म इन्द्र तथा सानत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, शतार, आनत और आरण के इन्द्र हैं। 'च' शब्द से अन्यों का भी ग्रहण हो जाता है । ब्रह्मलोक में निवास करने वाले लौकान्तिक कहलाते हैं। इनके आठ भेद हैं-सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट । इन्हें देवर्षि भी कहते हैं। ये सब स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य भव प्राप्तकर नियम से मोक्ष पाते हैं। अर्थात् सौधर्म इन्द्र मनुष्य भव को प्राप्तकर मोक्ष चला जाता है, उसकी अग्रमहिषी और लोकपाल भी मनुष्य भव को प्राप्तकर नियम से निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । तथा दक्षिणेन्द्र एवं लौकन्तिक देव भी चरमशरीर प्राप्त कर निश्चय से मुक्त हो जाते हैं, यह बात स्पष्ट है इसमें सन्देह नहीं है। अब गति-आगति अधिकार का उपसंहार करते हैं गाथार्थ-इस प्रकार से सारभूत सिद्धान्त में मैंने किंचित् मात्र गति-आगति को कहा है, नियम से मनुष्यगति में ही मोक्षगमन स्वीकार किया है ॥११८६॥ आचारवृत्ति-इस प्रकार से व्याख्याप्रज्ञप्ति सिद्धान्त में अथवा इस सिद्धान्त से लेकर मैंने अल्परूप से गति और आगति का वर्णन किया है। पुनः मोक्ष की प्राप्ति तो निश्चय से मनुष्य गति में ही होती है, अन्य गतियों में नहीं--ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है क्योंकि अन्य गतियों में संयम का अभाव है। कौन कैसे होकर और क्या करके मोक्ष जाते हैं ? सो ही बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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