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तत उर्ध्वं वासुदेवा आगत्य न भवन्तीति प्रति मदयन्नाह -
विदिगमणे रामत्तणे य तित्थय रचक्कवट्टित्ते । अणुदिसणुत्तरवासी तदो चुदा होंति भयणिज्जा ॥ ११८३॥
निर्व तिगमनेन रामत्वेन तीर्थकरत्वेन चक्रवर्तित्वेन च भाज्याः अनुदिशानुत्तरवासिनो देवास्तेभ्यो विमानेभ्यश्च्युताः सन्तः कदाचित्तीर्थकर रामचक्रवर्तिनो मुक्ताश्च भवन्ति न भवन्ति च वासुदेवाः पुनर्न भवन्ति एवेति ॥ ११८३॥
पुनर्निश्चयेन निर्वृतिं गच्छन्ति तान् प्रतिपादयन्नाह-
सव्वद्वादो य चुदा भज्जा तित्थयर चक्कवट्टित्तं ।
रामत्तणेण भज्जा णियमा पुण णिव्वुद जंति ॥ ११८४॥
सर्वार्थात्सर्वार्थसिद्धेश्च्युता देवास्तीर्थंकरत्वेन चक्रवतित्वेन रामत्वेन च भाज्याः, निर्वृति पुननश्चयेनान्त्येव न सत्र विकल्पः सर्वे त आगत्य चरमदेहा भवन्ति तीर्थंकरचक्रवतिरामविभूति भुक्त्वा मण्डलिकादिविभूति च संयममादाय नियमान्मुक्ति गच्छन्ति ॥ ११८४ ॥
पुनरपि निश्चयेन ये ये सिद्धि गच्छन्ति तान् प्रतिपादयन्नाह -
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[ मूलाचारे
सक्को सहग्गमहिसी सलोगपाला य दक्खिणदा य । लोगंतिगा यणियमा चुदा दु खलु णिव्वु दिं जंति ।। ११८५ ॥
इसके ऊपर से आकर वासुदव होते हैं सो ही कहते हैं
गाथार्थ - अनुदिश और अनुत्तरवासी देव वहाँ से च्युत होकर मुक्तिगमन, बलदेवत्व तीर्थंकरत्व और चक्रवर्तित्व पद से भजनीय होते हैं ।। १६८३ ॥
आचारवृत्ति - अनुदिश और अनुत्तरवासी देव उन विमानों से च्युत होकर कदाचित् तीर्थंकर होते हैं, या नहीं भी होते हैं; कदाचित् बलदेव या चक्रवर्ती होते हैं, नहीं भी होते हैं। वे देव यहाँ आकर कदाचित् मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं अथवा नहीं भी कर पाते हैं । किन्तु वहाँ से च्युत हुए देव वासुदेव अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण नहीं होते हैं यह नियम है ।
जो पुनः निश्चय से निर्वाण को प्राप्त करते हैं उनका वर्णन करते हैं
गाथार्थ - सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए देव तीर्थंकर और चक्रवर्ती के रूप में भाज्य हैं एवं बलदेवपने से भाज्य हैं किन्तु वे नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। ११८४ ।।
आचारवृत्ति - सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए देव तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा बलदेव होते हैं। नहीं भी होते हैं किन्तु वे नियम से मुक्ति प्राप्त करते हैं, इसमें विकल्प नहीं है । तात्पर्य यह है कि वहाँ से आये हुए सभी देव चरमशरीरी होते हैं। वे तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा बलदेव के वैभव को भोगकर या मण्डलीक आदि राज्य विभूति का अनुभव कर पुनः संयम ग्रहण करके नियम से मुक्ति को प्राप्त करते ही हैं ।
पुनरपि जो जो नियम से मुक्ति प्राप्त करते हैं उनका वर्णन करते हैं
गाथार्थ - शची सहित और लोकपाल सहित सौधर्म इन्द्र, दक्षिण दिशा के इन्द्र और लौकान्तिक देव वहाँ से च्युत होकर नियम से मोक्ष जाते हैं ।। ११८५ ॥
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