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________________ पर्याप्स्यधिकारा] | ३०५ ततः सहस्रारादुपरि नियमाद्देवाः सर्वेऽपि अनन्तरभवेन मनुष्येषुत्पद्यन्ते न तेषां तिर्यक्षपपाद: च्यवनकाले महतः संक्लेशस्याभावो यत इति ॥११८०॥ शलाकापुरुषा आगत्य ये देवा न भवन्ति तान् प्रतिपादयन्नाह प्राजोदिसं ति देवा सलागपुरिसा ण होंति ते णियमा । तेसि प्रणंतरभवे भजणिज्जं णिव्वुदीगमणं ॥११८१॥ आ ज्योतिषो देवा भवनवासिन आदी कृत्वा ज्योतिष्का यावद्देवाः शलाकापुरुषा न भवन्ति तीर्थकरचक्रवत्तिबलदेववासुदेवा न भवन्तीति निश्चयेन निर्व तिगमनं पुनस्तेषामनन्तरभवे भाज्यं कदाचिदभवति कदाचिन्नेति तस्य सर्वथा प्रतिषेधो नास्तीति ॥११८१॥ अथ के शलाकापुरुषा भवन्तीत्या शंकायामाह तत्तो परं तु गेवेज्जं भजणिज्जा सलागपुरिसा दु । तेसि अणंतरभवे भजणिज्जा णिव्वुदीगमणं ॥११८२॥ ततः परं सौधर्ममारभ्य नववेयकं यावत्तेभ्यो देवा आगत्य शलाकापुरुषा भवन्ति न भवन्तीति भाज्यास्तेषामनन्तरभवेन च निर्व तिगमनं च भाज्यं कदाचिदभवति कदाचिन्नेति ॥११८२॥ प्राचारवृत्ति-सहस्रार स्वर्ग से ऊपर के सभी देव नियम से अगले भव में मनुष्य पर्याय में ही होते हैं । वे तिर्यंचों में जन्म नहीं ले सकते हैं, क्योंकि वहाँ से च्युत होने के समय उनके अधिक संक्लेश का अभाव है। जो देव आकर शलाकापुरुष नहीं होते हैं उनका प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-ज्योतिषी पर्यन्त जो देव हैं वे नियम से शलाकापुरुष नहीं होते हैं। उनका अनन्तर भव में मोक्षगमन वैकल्पिक है ॥११८१॥ आचारवृत्ति-भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव वहां से च्युत होकर तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव ऐसे शलाकापुरुष नहीं होते हैं। उनकी उसी भव से मुक्ति होती है या नहीं भी होती है (सर्वथा निषेध नहीं है)। भावार्थ-शलाकापुरुषों में तीर्थंकर तो उसी भव से मोक्ष जाते हैं इसमें विकल्प नहीं है। चक्रवर्ती और बलदेव ये उसी भव से मुक्ति भी पा सकते हैं अथवा स्वर्ग जाते हैं। चक्रवर्ती नरक भी जा सकते हैं । वासुदेव और प्रतिवासुदेव ये नरक ही जाते हैं फिर भी ये महापुरुष स्वल्प भवों में मुक्ति प्राप्त करते ही हैं ऐसा नियम है। शलाकापुरुष कौन होते हैं, उसे ही बताते हैंगाथार्थ-इसके परे ग्रैवेयक तक के देव शलाकापुरुष होते हैं, नहीं भी होते; उनको उसी भव से मोक्षगमन होता है, नहीं भी होता ।।११८२॥ ___ आचारवृत्ति-सौधर्म स्वर्ग से लेकर नवग्रैवेयक तक के देव वहां से च्युत होकर शलाकापुरुष होते हैं, नहीं भी होते हैं । तथा वहाँ से आये हुए पुरुष अनन्तर भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, कदाचित् नहीं भी करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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