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________________ ३०२] [ मूलाचारे संज्ञिनामसंज्ञिनां च मिथ्यादृष्टीनां उपपादो मृत्वोत्पत्तिः कदाचिद्वानध्यंतरेषु कदाचिद्भवनवासिषु च बोद्धव्यो नियमेन, नात्र विरोध एतेषूत्पत्द्यन्तेऽन्यत्र च परिणामवशादिति ।११७३।। अथ ज्योतिष्केषु क उत्पद्यन्त इत्याशंकायामाह संखादीदाऊणं मणुयतिरिक्खाण मिच्छभावेण । उववादो जोदिसिए उक्कस्सं तावसाणं दु॥११७४॥ संख्यातीतायुषामसंख्यातवर्षप्रमाणायुषां मनुष्याणां तिरश्चां च मिथ्यात्वभावेनोपपाद: भवनवास्था. दिषु ज्योतिष्कदेवेषु कन्दफलाद्याहाराणां तापसानां चोत्कृष्ट उपपादस्तेष्वेव ज्योतिष्केषु शुभपरिणामेन नान्येनेति ॥११७४॥ अथाजीवकपरिव्राजकानां शुभपरिणामेन कियद्रगमनमित्याशंकायामाह परिवाय'गाण णियमा उक्कस्सं होदि वंभलोगम्हि । उक्कस्सं सहस्सार त्ति होदि य आजीवगाण तहा ॥११७५॥ परिव्राजकानां संन्यासिनां शुभपरिणामेन नियमाद उत्कृष्ट उपपादो भवनवास्यादिब्रह्मलोके भवन्ति, भाजीवकानां तयोपपादो भवनवास्यादि सहस्रारं यावद्भवति, सर्वोत्कृष्टाचरणेन मिथ्यात्वभावेन शुभपरिणा आचारवत्ति-सैनी और अस नी मिथ्यादृष्टि जीव मरण कर कदाचित् व्यन्तरों म और कदाचित् भवनवासियों में जन्म ले सकते हैं अर्थात् उनमें उत्पन्न हो सकते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है और परिणाम के वश से अन्यत्र भी उत्पन्न हो सकते हैं। ज्योतिषी देवों में कौन उत्पन्न होते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-असंख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य, तिर्यंच का मिथ्यात्वभाव से ज्योतिष्क देवों में जन्म होता है । तापसियों का भी उपपाद ज्योतिषियों में उत्कृष्ट आयु में होता है ।११७४।। आचारवृत्ति-असंख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले मनुष्यों और तिर्यंचों का जन्म मिथ्यात्वभाव से भवनवासी आदि से लेकर ज्योतिषी देवों में होता है । कन्दफल आदि आहार करनेवाले तापसियों का जन्म उन्हीं ज्योतिषियों में शुभपरिणाम से उष्कृष्ट आयु लेकर होता आजीवक और पारिवाजकों का शुभपरिणाम से कितनी दूर तक गमन होता है, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-पारिवाजकों का नियमसे ब्रह्मलोक में उत्कृष्ट जन्म होता है तथा आजीवकों का उत्कृष्ट जन्म सहस्रार पर्यन्त होता है ।।११७५।। आचारवृत्ति-पारिव्राजक संन्यासियों का उत्कृष्ट जन्म शुभपरिणाम से निश्चित ही भवनवासी से लेकर ब्रह्म नामक पाँचवें स्वर्गपर्यन्त होता है । तथा आजीवक साधुओं का जन्म मिथ्यात्व सहित सर्वोत्कृष्ट आचरणरूप शुभपरिणाम से भवनवासी आदि से लेकर सहस्रार १.क परिवाजगाण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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