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________________ पर्याप्त्यधिकारः ] मेनेति वक्तव्यं नान्यथेति । अन्येषां च लिंगिनां भवनादिष च द्रष्टव्यं शुभपरिणामेनेति ॥ ११७५ ॥ अथोsवं क उत्पद्यन्त इत्याह तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं । णिग्गंथ सावगाणं उववादो प्रच्चुदं जाव ॥। ११७६॥ ततः सहस्राराध्वं परेषु कल्पेषु नियमादुपपादो नास्त्यन्यलिंगिनां परमोत्कृष्टाचरणेनापि, निर्ग्रन्थाणां श्रावकाणां श्राविकाणाम् आर्यिकाणां च शुभपरिणामेनोत्कृष्टाचरणेनोपपादः सौधर्ममादि कृत्वा यावदच्युतकल्पः निश्चितमेतदि ।। ११७६।। aerभव्या जिनलिंगेन कियद्दूरं गच्छन्तीत्याशंकाय' माह जा उवरिमगेवेज्जं उववादो अशवियाण उक्कस्सो । seer तवेण दुणियमा णिग्गंथलगेण ॥ ११७७॥ अभव्यानां निर्ग्रन्थलिगेनोत्कृष्टतपसा निश्चयेनोत्पाद उत्कृष्ट: भवनवासिनमादि कृत्वोपरिमत्रैवेयकं यावमिध्यात्वभावेन शुभ परिणामेन रागद्वेषाद्यभावेनेति वक्तव्यम् ॥ ११७७॥ अथोपरि के न गच्छतीत्याशंकायामाह - ततो परं तु णियमा तवदंसणणाणचरणजुत्ताणं । frieववादों जावदु सव्वट्ठसिद्धित्ति ।। ११७८ ।। [ ३०३ पर्यन्त होता है ऐसा कहना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं । और अन्य लिंगी - पाखण्डी साधुओं का जन्म भी शुभपरिणाम से भवनवासी आदि देवों में देखना चाहिए। इससे ऊपर कौन उत्पन्न होते हैं, सो ही बताते हैं गाथार्थ - इससे परे तो नियम से अन्यलिंगियों का जन्म नहीं होता है। निर्ग्रन्थ और श्रावकों का जन्म अच्युत पर्यन्त होता है ।। ११७६ ।। आचारवृत्ति -- उस सहस्रार स्वर्ग से आगे के कल्पों में नियम से अन्य पाखण्डियों का राम उत्कृष्ट आचरण होने पर भी जन्म नहीं होता है। निर्ग्रन्थ मुनियों का, श्रावकों का और यिकाओं का जन्म शुभपरिणामरूप उत्कृष्ट आचरण से सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त निश्चितरूप से होता है । Jain Education International अभव्यजीव जिनलिंग से कितनी दूर तक जाते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैंमाथार्थ - अभव्यों का उत्कृष्ट जन्म निश्चित ही निर्ग्रन्थ लिंग द्वारा उत्कृष्ट तप से परम ग्रैवेयक पर्यन्त होता है ।। ११७७ ॥ आचारवृत्ति - - अभव्य जीवों का उत्कृष्ट जन्म निर्ग्रन्थ मुद्रा धारणकर उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा भवनवासी से लेकर उपस्मि ग्रैवेयक पर्यन्त होता है । यद्यपि मिथ्यात्व भाव उनमें है तो भी रागद्वेषादि के अभावरूप शुभपरिणाम से ही वहाँ तक जन्म होता है । इसके ऊपर कौन नहीं जाते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ - इसके आगे तो नियम से दर्शन, ज्ञान, उपपाद सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त होता है ॥ ११७८ ।। चारित्र और तप से युक्त निर्ग्रन्थों का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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