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________________ पर्वाप्यधिकारः ] ते परं पुढवीसु य भजणिज्जा उवरिमा हु णेरइया । णियमा अणंतरभवे तित्थयरत्तस्स उप्पत्ती ॥११६२ ॥ तेन परं तस्याश्च पृथिव्या ऊष्वं पुढवीसु य - पृथिवीषु च प्रथमद्वितीयतृतीय प्रभासु भजणिज्जाभाज्या विभाज्या, उवरिमा - उपरितमा, रइया - नारकाः, नियमादनन्तरभवेन तीर्थंकरत्वस्योत्पत्तिः । तृतीयद्वितीयप्रथमेभ्यो नरकेभ्य आगतानां नारकाणां तेनैव भवेन संयमलाभो मोक्षगतिस्तीर्थंकरत्वं च सम्भवति नात्र प्रतिषेध इति ।। ११६२ ॥ सप्तभ्यः पृथिवीभ्य आगतास्तेनैव भवेन यन्न लभन्ते तदाह णिरयेहि णिग्गदाणं अनंतरभवम्हि णत्थि नियमादो । बलदेववासुदेवत्तणं च तह चक्कवट्टित्तं ।। ११६३॥ [ २६७ नरकेभ्यो निर्गतानामनन्तरभवे नास्ति नियमाद् बलदेवत्वं वासुदेवत्वं तथा सकलचक्रवत्तित्वं च । नरकादागतस्य जीवस्य तेनैव भवेन बलदेववासुदेवचक्रवत्तिभावा न सम्भवन्ति, संयमपूर्वका यत: इमे, नरके च संयमेन गमनं नास्तीति ॥११६३ ॥ नारकाणां गत्यागतिस्वरूपमुपसंहरन् शेषाणां च सूचयन्नाह- raarataणमा रइयाणं समासदो भणिओ । एतो साणं पिय आगदिगदिमो पवक्खामी ॥। ११६४ ॥ उपपादोद्वर्त्तने गत्यागती नारकाणां समासतो भणिते प्रतिपादिते, इत ऊष्वं शेषाणां तिर्यङ मनुष्य गाथार्थ -- इसके आगे पृथिवी से निकले हुए ऊपर के नारकी वैकल्पिक हैं । वे निश्चित ही उसी भव से तीर्थंकर पद की प्राप्ति कर सकते हैं ।। ११६२ ॥ आचारवृत्ति - चौथी पृथिवी से परे पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवी से निकले हुए नारकियों को उसी भव से संयम का लाभ, मोक्ष की प्राप्ति और तीर्थंकर पद सम्भव है, इसमें निषेध नहीं है । Jain Education International सातों नरकों से आकर उसी भव से जो नहीं प्राप्त कर सकते, उसे बताते हैं गाथार्थ - सातों नरकों से निकले हुए जीवों को उसी भव नियम से देवबल, वासुदेव पद और चक्रवर्ती पद नहीं होता है ।। ११६३॥ आचारवृत्ति - सातों नरकों में से आये हुए जीवों को अनन्तर भव में ही बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती पद नहीं मिलता है क्योंकि ये पद संयमपूर्वक ही होते हैं और संयमसहित जीव नरक में जा नहीं सकता है । नारकियों की गति - आगति के स्वरूप का उपसंहार करते हुए तथा शेष जीवों की सूचना करते हुए कहते हैं गाथार्थ - नारकियों के जन्म लेने का और निकलने का संक्षेप से कथन किया है, इसके आगे अब शेष जीवों की भी आगति और गति कहेंगे ।। ११६४॥ प्राचारवृत्ति -- नारकियों की गति और आगति का संक्षेप से कथन किया गया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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