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________________ २६६] [मूलाचारे षष्ठ्याः पृथिव्या षष्ठनरकादुत्तिता आगताः संतोऽनन्तरभवे तस्मिन् भवे भाज्या विकल्पयुक्ताः मनुष्यलाभेन सम्यक्त्वलाभेन च, संयमलाभेन तु विहीनाः। षष्ठनरकादागतानां तस्मिन् भवे कदाचिन्मनुष्यलाभः सम्यक्त्वलाभश्च भवति नापि भवति, संयमलाभस्तु निश्चयेन न भवतीति ॥११५९॥ पंचमपृथिव्या आगता यल्लभन्ते यच्च न लभन्ते तदाह होज्जद संजमलाभो' पंचमखिदिणिग्गदस्स जीवस्स । णत्थि पुण अंतकिरिया णियमा भवसंकिलेसेण ॥११६०॥ पंचमपृथिव्या निर्गतस्य जीवस्य भवत्येव संयमलाभः, अन्तक्रिया मोक्षगमनं पुननियमान्नास्ति भवसंक्लेशदोषेणेति । यद्यपि पंचमनरकादागतस्य संयमलाभो भवति तथापि मोक्षगमनं नास्ति भवसंक्लेशदोषेणेनि ११६०॥ चतुर्थ्या आगतस्य यद्भवति तदाह होज्जदु णिन्वुदिगमणं चउत्थिखिदिणिग्गदस्स जीवस्स। णियमा तित्थयरत्तं स्थित्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥११६१॥ चतुर्थीक्षितेरागतस्य जीवस्य भवत्येव निर्वतिगमनं, तीर्थकरत्वं पुननिश्चयेन नास्ति जिनः प्रज्ञप्तमेतत् । चतुर्थनरकादागतस्य यद्यपि नितिगमनं भवति जीवस्य तथापि तीर्थकरत्वं नास्ति, नात्र सन्देहो जिनः प्रतिपादितत्वादिति ।।११६१॥ तत उर्ध्वमाह आचारवृत्ति-छठे नरक से निकले हुए नारकी अनन्तर भव में ही मनुष्य पर्याय लाभ और सम्यक्त्व की प्राप्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते हैं। किन्तु संयम की प्राप्ति उन्हें निश्चय से नहीं होती है। पाँचवी पृथ्वी से आकर जो प्राप्त करते हैं और जो प्राप्त नहीं करते हैं, उसे कहते हैं गाथार्थ-पाँचवीं भूमि से निकले हुए जीव को भले ही संयम लाभ हो जावे किन्तु नियम से उसका भव संक्लेश के कारण मोक्ष गमन नहीं होता ॥११६०।। प्राचारवत्ति-पांचवें नरक से निकले हुए जीव को संयम की प्राप्ति तो हो सकती है किन्तु भवसंक्लेश के कारण उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। चौथी पृथ्वी से आनेवाले को जो होता है, उसे बताते हैं गाथार्थ-चौथी भूमि से निकले हुए जीव का मोक्ष-गमन हो जाए किन्तु नियम से तीर्थक र पद नहीं हो सकता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥११६१॥ प्राचारवत्ति-चौथे नरक से निकले हुए जीव यद्यपि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं किन्तु व तीर्थंकर नहीं हो सकते हैं ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का कथन है। इसके ऊपर के जीवों के विषय में कहते हैं-. १.क लम्भो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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