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________________ २२] व्यन्तरादीनामवधिविषयमाह - पणवीस जोयणाणं ओही वितरकुमारवग्गाणं । संखेज्जजोयणोही जोदिसियाणं जहण्णं तु ॥ ११५२॥* पणवीस - पंचविंशतिः, जोयणाणं- योजनानां, ओही अवधिज्ञानं भवप्रत्ययजं, वितर—- व्यन्तराणां किनराद्यष्टप्रकाराणां, कुमारवग्गाणं कुमारवर्गाणां नागकुमारादिनवानां संखेज्जजोयण -- संख्यातयोज - नानि सप्ताष्टादीनि ओही - अवधिः, जोदिसियाणं - ज्योतिषां चतुःप्रकाराणां, जहणणं हु—जघन्यं एव । व्यंतराणां नागादिनवकुमाराणां च पंचविंशतियोजनान्यवधिर्जघन्यो भवति, ज्योतिष्काणां पुनर्जघन्यतोऽवधिः संख्यातयोजनानि, 'एतावन्मात्रं वस्तु परिच्छिनत्तीति ॥११५२ ।। असुरचन्द्रादित्यादीनां जघन्यं सर्वेषामुत्कृष्टं चावधि प्रतिपादयन्नाह - असुराणामसंखेज्जा कोडी जोइसिय सेसाणं । संखादीदा य खलु उक्कस्सोहीयविसओ दु ॥ ११५३॥ असुराणं - असुराणां प्रथमभवनवासिनां, असंलेम्जा – असंख्याताः, कोडी — कोट्यो योजनानामिति संबन्ध:, जघन्योवधिरसुराणां चन्द्रादीनां चासंख्याता योजनकोटयः, इत उत्कृष्टं ज्योतिष्कादीनामाह, जोइसिय-- ज्योतिष्काणां चन्द्रादीनां, सेसाणं--- शेषाणां भवनवासिवानव्यन्तराणां निकृष्टकल्पवासिनांच, संज्ञाबीबा - संख्यातीताश्च संख्यामतिक्रान्ताः असंख्याता योजनकोटिकोटयः खलु स्फुटं, उनकस्सोही - उत्कृष्टा [ मूलाचारे व्यन्तर आदि के अवधि का विषय कहते हैं गाथार्थ - व्यन्तर और नागादि कुमारों के अवधि पचीस योजन तक है । ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि संख्यात योजन तक है ।। ११५२ ।। आचारवृत्ति - किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तरों और नागकुमार आदि नव प्रकार के भवनवासी देवों के अवधिज्ञान का विषय कम-से-कम पचीस योजन तक है । ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि संख्यात योजन अर्थात् सात-आठ योजन पर्यन्त ही है । अर्थात् इतने मात्र की 'वस्तु को ही वे देखते हैं । स्थान असुर, चन्द्र, सूर्य आदि की जघन्य और सभी के उत्कृष्ट अवधि का प्रतिपादन करते गाथार्थ - असुर देवों के और शेष ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधि असंख्यात कोटि योजन है तथा उत्कृष्ट अवधि का विषय संख्यातीत कोटि योजन है ।। ११५३ ॥ Jain Education International आचारवृत्ति - भवनवासी के प्रथम भेदरूप असुरों की तथा चन्द्र, सूर्य, आदि के जघन्य अवधि असंख्यात करोड़ योजन है । इसके आगे ज्योतिष्क आदिकों के उत्कृष्ट अवधि कहते हैं - चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिषी देवों के तथा शेष भवनवासी, व्यन्तर और निकृष्ट कल्पवासी देवों के उत्कृष्ट अवधि का विषय असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन है । तात्पर्य यह है कि भवन - * यह गाया फलटन से प्रकाशित मूलाचार में दो गाथाओं के पहले है । १. क एतावन्मात्रे व्यवस्थितं वस्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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