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________________ [ २९१ चिकारा ] समक्कुमारमाहिवा – सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्ये देवाः, बंभालंतव - ब्रह्मलान्तवा ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवका पिष्ठेषु ये ये देवास्ते, तवियं-तृतीयां तृतीयपृथिवीपर्यन्तं, सुक्क सहस्सारया - शुक्रसहस्रारकाः शुक्रमहाशुक्रशता र सहस्रारेषु कल्पेषु ये देवास्ते चउत्थी दु- चतुर्थं पृथिवी पर्यन्तमेव । सौधर्मेशानयोर्देवाः 'स्वावासमादि कृत्वा प्रथम पृथिवीपर्यन्तं यावदवधिज्ञानेन पश्यन्ति तथा सानत्कुमार माहेन्द्रर्योर्देवाः स्वावासमारभ्य यावद्वितीयावसानं तावत्पश्यन्ति, ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवका पिष्ठेषु देवाः स्वविमानमादि कृत्वा तावत्पश्यन्ति यावत्तृतीयपृथिवीपर्यन्तं, शुक्रमहाशुऋशतारसहस्रारेषु सुराः 'स्वदेशमारभ्य तावत्पश्यन्ति यावच्चतुर्थीसमाप्तिरिति ॥ ११५०॥ पंचम - पंचमी पृथिवीं, आणदपाणव- आनत प्राणतान्ताः आनतप्राणत कल्पयोर्देवाः छुट्टी - षष्ठीं पृथिवीम्, आरणाच्चुदाय - आरणाच्युताश्चारणाच्युतयोः कल्यपोर्ये देवास्ते पस्संति-— पश्यन्ति अवधिज्ञानेन सम्यगवलोकयन्ति, णवगवेज्जा - नव ग्रैवेयका नवग्रैवेयकविमानेषु देवाः सत्तमि - सप्तमीं पृथिवीं, अणुदिसअनुदिशेषु नवानुत्तरेषु देवाः अनुत्तरा य-अनुत्तराश्च पंचानुत्तरेषु देवा लोगंतं - लोकान्तं अधोवातपर्यन्तम् । आनतप्राणतकल्पयोर्देवाः स्वविष्टरंमारभ्य यावत्पंचमपृथिवीपर्यन्तं तावत्पश्यन्ति, आरणाच्युतकल्पयोः पुनर्देवाः स्वावस्थानमारभ्य यावत्षष्ठपृथिवीपर्यन्तं तावत्पश्यन्ति नवग्रैवेयकेषु देवा: स्वविमानमारभ्य यावत्सप्तमी तावत्पश्यन्ति । नवानुदिशेषु पंचानुत्तरेषु च देवा: स्वदेवगृहमारभ्य यावल्लोकान्तं पश्यन्ति, ऊर्ध्वं पुनः सर्व स्वविमानष्वजाग्रं यावत्पश्यन्त्य संख्या तयोजनानि तिर्यक् पुनरसंख्यातानि योजनानि पश्यन्तीत्यर्थः ॥ ११५१ ॥ के देव तीसरी पृथिवी तक, शुक्र-महाशुक्र, शतार - सहस्रार स्वर्गों के देव चौथी पृथिवी तक खते हैं । अर्थात् ये देव अपने आवासस्थान से लेकर कथित नरक पृथिवी तक वस्तुओं को अपने अवधिज्ञान द्वारा देख लेते हैं । आनत-प्राणत स्वर्ग के देव अपने सिंहासन से आरम्भ कर पाँचवीं तक विषय को अपने अवधिज्ञान से अच्छी तरह अवलोकित कर लेते हैं । आरण-अच्युत कल्प के देव अपने अवस्थान से लेकर छठी पृथिवी तक देख लेते हैं । नवग्रैवेयकों के देव अपने विमान से लेकर सातवीं भूमि तक देख लेते हैं । नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों के अहमिन्द्र देव अपने देवगृह से प्रारम्भ कर लोक के अन्त भाग तक देख लेते हैं। पुनः ये सभी देव अपने विमान की ध्वजा के अग्रभाग तक अथवा असंख्यात योजनों तक तथा तिर्यक् में असंख्यात योजन तक देख लेते हैं । * १. क स्वस्थानमादि । २. क स्वप्रदेशमारभ्य । मोत्तूण मणोहारं आहारो होइ सव्वजीवाणं । अणुसमयं अणुसमयं पोग्गलमइयो य णावव्यो । अमयं दिव्वाहारो मदुजीवणियं च कदसणाहारो । देवाण भोगभूमाणं चक्कवट्टीण मणुयाणं ॥ अर्थ- मानसिक आहार छोड़कर बाकी सभी जीवों के प्रतिसमय पुद्गलमय आहार होता है, अर्थात् देवों का मानसिक आहार प्रतिसमय न होकर उपर्युक्त काल में होता है । देवों का अमृतमय आहार है, अर्थात् उन्हें आहारेच्छा होने पर कंठ में अमृतमय सातिशय सुरभिमय आह, लादक पुद्गलों का आगमन होता है उससे उन्हें बहुतकाल के लिए तृप्ति हो जाती है । भोगभूमिज मनुष्यों को कल्पवृक्षों से दिव्याहार मिलता है । चक्रवर्ती और तीर्थंकरों को मिष्टरस युक्त कल्याणकर आहार प्राप्त होता है। अवशिष्ट मनुष्य आदिकों को नीरस आहार प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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