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________________ २६०] [ मूलाचारे अयोच्छ्वासः कथं तेषामित्याशंकायामाह उक्कस्सेणुस्सासो पक्खणहिएण होइ भवणाणं । मुहुत्तपुधत्तेण तहा जोइसणागाण भोमाणं ॥११४६॥ उपकस्सेण-उत्कृष्टेन, उस्सासो-उच्छ्वासः, पक्खेण--पक्षेण, पंचदशाहोरात्रेण, महिएण-अधिकेन, होह-भवति, भवणाणं-भवनानामसुराणां, महत्तपुचत्तण-मुहूर्तपृथक्त्वेन, यद्यप्यत्र मुहूर्तपृथक्त्वमुक्ततपाप्यत्रान्तर्मुहूर्तपृथक्त्वं ग्राह्य तथोपदेशात् राशिकन्यायाभिन्नमुहूर्तानुवर्तनाच्च, तहा-तथा तेनैव प्रकारेण, जोइसणागाण भोमाणं-ज्योतिष्कनागभीमानां । तथाशब्देन शेषकुमाराणां चासुराणां पक्षेण साधिकेनोच्छ्वासो नागानां कल्पवासिदेवीनां च, अन्तर्मुहूर्तपृथक्त्वेन भिन्नमुहूर्तपृथक्त्वैर्वा ज्योतिष्कभीमानां शेषकुपाराणां तद्देवीनां भिन्नमुहूर्तेनेति ॥११४६॥ इन्द्रियविषयद्वारेणव देवनारकाणामवधिविषयं प्रतिपादयन्नाह सक्कोसाणा पढमं विदियं तु सणक्कारममाहिवा। बंभालंतव तदियं सुक्कसहस्सारया चउत्थी दु॥११५०॥ पंचमि आणदपरणद छट्ठी आरणच्चुवा य पस्संति । णवगेवज्जा सत्तमि अणुविस अणुत्तरा य लोगंतं ॥११५१॥ पश्यन्तीति क्रियापदगुत्तरगाथायां तिष्ठति तेन सह संबन्धो द्रष्टव्यः । सक्कोसाणा-शकैशाना: सोधर्मशानयोर्वा ये देवाः पढम-प्रथमं प्रथमपृथिवीपर्यन्तं यावत् विदियं तु-द्वितीयं तु द्वितीयपृथिवीपर्यन्तं, अब इनका उच्छ्वास कैसे होता है, उसे ही बताते हैं गाथार्य-भवनवासियों का उत्कृष्ट से कुछ अधिक एक पक्ष में उच्छ्वास होता है तथा ज्योतिषी, नागकुमार और व्यन्तर देवों का मुहूर्त पृथक्त्व से उच्छ्वास होता है ॥११४६॥ आचारवृत्ति-भवनवासियों में से असुरकुमारों का कुछ अधिक पन्द्रह दिन के बीतने पर उच्छ्वास होता है। ज्योतिषो देव, नागकुमार देव एवं कल्पवासी देवियाँ-इनका उच्छ्वास अन्तर्मुहर्त पृथक्त्व के बीतने पर होता है। यद्यपि गाथा में 'मुहूर्त पृथक्त्व' शब्द है तो भी अन्तमुहर्त पृथक्त्व ग्रहण करना, क्योंकि वैसा ही आगम में उपदेश है और त्रैराशिक न्याय से भी ऐसा ही आता है। तथा भिन्नमुहूर्त की अनिवृत्ति चली आ रही है। इन्द्रिय विषय के द्वारा देव और नारकियों की अवधि को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं गाथार्थ-सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देव पहली पृथिवी तक, सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग के दूसरी तक, ब्रह्म-युगल और लान्तव-युगल स्वर्ग के देव तीसरी तक, शुक्र युगल और शतार-सहस्रार स्वर्ग के देव चौथी पृथिवी तक अवधिज्ञान से देखते हैं ॥११५०-११५१।। आनत-प्राणत के देव पाँचवीं तक, आरण-अच्युत के छठी तक, नव ग्रैवेयक के इन्द्र सातवीं पथिवी तक, अनुदिश और अनुत्तर के इन्द्र लोकान्त तक देख लेते हैं। आचारवत्ति यहाँ क्रियापद अगली गाथा में है उसके साथ सबका सम्बन्ध लगा लेना चाहिए । सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देव पहली पृथिवी-पर्यन्त अपने अवधि ज्ञान से देखते हैं। सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग के देव दूसरी पृथिवी तक, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लान्तव-कापिष्ठ स्वों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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