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पर्याप्यधिकारः ]
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वाससहस्सियाहु - वर्षसहस्रं रतिक्रान्तैराहारो भोजनेच्छा आहाराभिलाषः यावन्मात्राणि सागरोपमाण्यायुस्तावन्मात्रैर्वर्षसहस्रं रतिक्रान्तैराहारो देवानां भवति । अथ गन्धस्य कथमित्युक्तेऽत आह, पक्खेहि दु- पक्षैस्तु पंचदशाहोरात्रः, उस्सासो - उच्छ्वासो निःश्वासश्च गन्धद्रव्याघ्राणं, सायरसमयेह - 'सागरसमयस मानैः सागरोपमप्रमाणेः, चेव -- चैव भवे भवेत् । यावन्मात्राणि सागरोपमाणि जीवन्ति देवास्तावन्मात्रः पक्षगंतैरुच्छ्वासनिःश्वासौ भवतः । सोधर्मेशानयोर्देवानामाहारसंज्ञा भूवति द्वयोर्वर्षसहस्रयोः साधिकयोगं तयोस्तथा मासे साधिके गते उच्छ्वासो भवेत्, सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवानां सप्तभिर्वर्षसहस्रः साधिकैर्ग तैराहारेच्छा जायते तावद्भिः पक्षैश्चोच्छ्वासः साधिकैः । चशब्दाद्देवीनामन्तर्मुहूर्त पृथक्त्वेनैवमुत्तरत्रापि सर्वत्र योज्यमिति । ।। ११४७॥
अथ येषां पल्योपमायुस्तेषा" मित्याशंकायामाह -
उदकस्सेणाहारो वाससहस्साहिएण भवणाणं ।
जोदिसियाणं पुण भिण्णमुहत्तेणेदि सेस उस्कस्सं ॥। ११४८ ॥
उक्कस्सेण —— उत्कृष्टेनाहारो भोजनाभिप्रायः, बाससहस्स– वर्षसहस्रण, अहिएण - अधिकेन पंचदशवर्षशतैरित्यर्थः भवणाणं - भवनानां भवनवास्यसुराणां जोबिसियाणं – ज्योतिष्काणां चन्द्रादित्यादीनां, पुण पुनः, भिण्णमुहतेण - भिण्ण मुहूर्तेन, इदि इति एवं सेस शेषाणां नवानां भवनवासिकुमाराणां सर्वदेवीनां च, किन्तु केषांचिन्मुहूर्त्त पृथक्त्वेन उक्कस्तं - उत्कृष्टम् । असुराणां वर्षसहस्रेण साधिकेनाहारग्रहणं भवति, ज्योतिषां शेषकुमाराणां व्यंतराणां सर्वदेवीनां चान्तर्मुहूर्तेन, केषांचिदन्तर्मुहूर्त्त पृथक्त्वेनेति * ॥११४८॥
जाने पर उनके मानसिक आहार होता है । इन देवों के गन्ध का क्या है ? जितने सागर प्रमाण आयु है उतने पक्षों के व्यतीत हो जाने पर उच्छ्वास - निश्वास लेते हैं । सौधर्म और ऐशान में देवों के आहारसंज्ञा कुछ अधिक दो हज़ार वर्ष के बीतने पर होती है तथा कुछ अधिक एक महीने के बीत जाने पर उच्छ्वास होता है । सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में देवों को कुछ अधिक सात हजार वर्षों बीत जाने पर आहार की इच्छा होती है । एवं कुछ अधिक उतने ही पक्षों के बीतने पर उच्छ्वास होता है । 'च' शब्द से - देवियों का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व से श्वासोच्छ्वास होता है ।
जिनकी पत्योपम की आयु है उनका कैसा है ? उसे ही बताते हैं
गाथार्थ -- भवनवासी देवों का उत्कृष्ट से कुछ अधिक हज़ार वर्ष में आहार होता है, ज्योतिषी देवों का अन्तर्मुहूर्त से होता है तथा शेष देवों का भी उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त बाद आहार होता है ।। ११४८ ।।
श्राचारवृत्ति - भवनवासी देवों में से असुरकुमार जाति के देवों का आहार उत्कृष्ट की अपेक्षा पन्द्रह सौ वर्षों के बीतने पर होता है । चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिषी देवों का आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है । शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव तथा व्यन्तर देवों का एवं सर्वदेवियों आहार अन्तर्मुहूर्त से होता है । किन्हीं - किन्हीं का अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व के बीतने पर आहार होता है ।
१. क सागरोपसमानैः । २. क तेषां कथमित्या- ।
३. क सागरोपमं साभिप्रायेण । ४.
बिनपुथक्त्वेनेति ।
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