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________________ २७२१ [ मूलाचारे असंख्यातंसंख्यामतिकान्तमवधिज्ञानविषयभूतं,विदियं-द्वितीयं, तदियं-तृतीयं, अर्णतय-अनन्तम् असंख्यात. मतिक्रान्तं केवलज्ञानगोचरं,वियाणाहि-विजानीहि, तत्थ य-तत्र च तेषुसंख्यातासंख्यातानन्तेषु मध्ये पढमंप्रथमं यत्संख्यातं तिविहं-त्रिविधं त्रिप्रकारं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन; णवहा–नवधा नवप्रकार, दोणिद्वे, के ते ? द्वितीयतृतीये। प्रथमं यत्संख्यातं तत्त्रिविधं, द्वितीयं यदसंख्यातं तन्नवप्रकार, तृतीयं यदनन्तं तदपि नवप्रकारम् । तत्र जघन्यसंख्यातं द्वे रूपे, रूपत्रयमादिं कृत्वा यावद्र्पोनोत्कृष्टं संख्यातं तत्सर्वमजघन्योत्कृष्टसंख्यातं, जघन्यपरीतासंख्यातं रूपोनमुत्कृष्टं संख्यातम् अस्यानयनविधानमुच्यते--प्रमाणयोजनलक्षायामविस्तारावगाधाश्चत्वारः कुशूलाः शलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकानवस्थितसंज्ञकास्तत्रैकमनवस्थितसंज्ञक कुशूलं सर्षपपूर्ण कृत्वा देवो दानवो वा तत्रैकैकं सर्षपं द्वीपे समुद्र तावत्क्षिपेत् यावद्रिक्तः संजातः, ततः शलाकाकूण्डे एक सर्षपंक्षिपेत अनवस्थितं कुण्डं तावन्मानं पुनः प्रकृत्य सर्षपश्च संपणं कृत्वा द्वीपे समद्र च क्षिपेत । यत्र निष्ठितस्तत्र शलाकाकुण्डे द्वितीयमेवं सर्षपं क्षिपेत् अनवस्थितं च कुण्डं तावन्मात्रं प्रकृत्य सर्षपैश्च पूर्ण कृत्वा द्वीपे समुद्रे च क्षिपेत्। यत्र निष्ठितस्तत्र शलाकाकुण्डे तृतीयं सर्षपं क्षिपेत् । अनवस्थितकुण्डं च तावन्मात्र प्रकृत्य पर्यन्त संख्या का नाम संख्यात है। यह श्रुतज्ञान का विषय है। जो संख्या को उल्लंघन कर चुका है वह असंख्यात है, वह अवधिज्ञान का विषय है। जो असंख्यात को भी उल्लंघन कर चुका है वह अनन्त है, वह केवलज्ञान का विषय है। प्रथम संख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अक्षा तीन भेद हैं। असंख्यात के नौ भेद हैं और अनन्त के भी नौ भेद हैं। दो रूप-दो की संख्या जघन्य संख्यात है। तीन अंकों को आदि में लेकर एक अंक कम उत्कृष्ट संख्यात तक सर्वसंख्या का अजघन्योत्कृष्ट संख्या कहते हैं । एक रूप-कम जघन्य. परीतासंख्यात को उत्कृष्ट संख्यात कहते हैं। इस उत्कृष्ट संख्यात को लाने का विधान कहते एक लाख बड़े योजन प्रमाण लम्बे, उतने ही चौड़े और उतने गहरे प्रमाणवाले ऐसे चार कुशूल-कुण्ड बनाइए। उनको क्रम से शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका और अनवस्थित नाम दीजिए। उनमें से जो यह एक अनवस्थित नाम का कुण्ड है उसे सरसों से पूरा भर दीजिए । पुनः कोई देव या दानव उसमें की सरसों को लेकर एक-एक सरसों क्रम से द्वीप और समुद्र में डालता चला जावे । यह क्रिया तब तक करे कि जब तक वह अनवस्थित कुण्ड खाली न हो जावे। उस कुण्ड के खाली हो जाने पर पुनः एक सरसों इस प्रथम शलाकाकुण्ड में डाल देवे। पुनः जिस द्वीप या समुद्र पर वह अनवस्थित कुण्ड खाली हुआ था उसी द्वीप या समुद्र के बराबर प्रमाणवाला एक अनवस्थित कुण्ड बनाकर उस सरसों से पूरा भरके उन सरसों को भी आगे के द्वीप समुद्रों में एक-एक डालता जावे। जब यह दूसरा अनवस्थित कुण्ड भी खाली हो जावे तब पुनः उसी प्रथम शलाका कुण्ड में एक दूसरा सरसों और डाल देवे। और जहाँ वह कुण्ड खालो हुआ है उतने प्रमाण वाला एक तीसरा अनवस्थित कुण्ड निर्माण करके उसे भी सरसों से लबालब भरके उन सरसों को आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में एक-एक डालता जावे। जब वह कुण्ड भी खाली हो जावे तब पुनः शलाका कुण्ड में तीसरा सरसों डालकर पुनरपि पूर्ववत् अनवस्थित कुण्ड बनाकर सरसों से भरकर, उन सरसों को लेकर आगे के द्वीप-समुद्रों में १. गहराई एक हजार योजन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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