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________________ पर्याप्त्यधिकारः] [ २७१ ग्रहणं वेदितव्यं भिण्णमहत्तं-भिन्नमुहूर्त क्षुद्रभवग्रहणमुच्छ्वासस्य किचिन्यूनाष्टादशभागः, हव-भवेत्, जहण्ण-जघन्येन जघन्यं वा सोवक्कमाउगाणं-उपक्रम्यत इति उपक्रम: विषवेदनारक्तक्षयभयसंक्लेशशस्त्र. घातोच्छ्वासनिश्वासनिरोध रायुषो घातः, सह उपक्रमेण वर्तत इति सोपक्रममायुर्वेषां ते सोपक्रमायुषः सघातायस्तेषां सोपक्रमायुषां, सण्णीणं-संज्ञिना समनस्कानां च, चशब्दो मनुष्याणां समुच्चयार्थस्तेनात्र त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरमदेहवजितमनुष्याण, ग्रहणं भवति । सोपक्रमविशेषणेन च देवनारकभोगभूमिप्रतिभागजानां प्रतिषेधो भवति, अवि एमेव-अप्येवमेव भिन्नमुहूर्तमेव किंतु पूर्वोक्ताद्भिन्न मुहूर्तादयं भिन्नमुहूर्तो महान्, एकेन्द्रियेषु क्षुद्रभवग्रहणं यतोऽतोऽप्येवमेव ग्रहणेन सूचितमेतदर्थजातं, अपर एवकारो निश्चयार्थः । सर्वेषाममनस्कानां जघन्यमायुभिन्नमुहूतं भवेत् सोपक्रमायुषां कर्मभूमिप्रतिभागजानां च संज्ञिनां तिरश्चां त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरमदेहादिवजितमनुष्याणां चाप्येव जघन्यमायुरन्तर्मुहूर्तमेवेति ॥११२६॥ यद्यपि प्रमाणं पूर्वसूत्रः व्याख्यातं तथापि विशेषेण प्रमाणं द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन चतुविधं, तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विविधं संख्यातप्रमाणमुपमानप्रमाणं चेति तत्र संख्यातप्रमाणं तावन्निरूपयन्नाह-- संखेज्जमसंखेन्ज विदियं तदियमणंतयं वियाणाहि। तत्थ य पढमं तिविहं णवहा णवहा हवे दोण्णि ॥११२७॥ संखेज्ज–संख्यातं रूपद्वयमादिकृत्वा यावद्रूपोनजघन्यपरीतसंख्यातं श्रुतज्ञानविषयभूतं, असंखेज्जं पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की जघन्य आयु अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। यहाँ अन्तर्मुहर्त से क्षुद्रभव मात्र अर्थात् उच्छवास के किंचित् न्यून अठारवे भाग मात्र समझना चाहिए। उपक्रम का अर्थ है घात अर्थात् विष, वेदना, रक्त, क्षय, भय, संक्लेश, शस्त्रघाव, उच्छ्वास, निश्वास का निरोध इन कारणों से आयु का घात होना उपक्रम है। ऐसे उपक्रम सहित आयुवाले-अकालमृत्युवाले संज्ञी जोवों की, तथा 'च' शब्द से मनुष्यों का समुच्चय होता है इससे यहाँ पर प्रेसठ शलाकापुरुष और चरमदेहधारी पुरुष इनको छोड़कर, शेषघातायुष्कवाले मनष्यों की भी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ पर सोपक्रम विशेषण से देव, नारकी, भोगभूमिज और भोगभमिप्रति नभागज मनष्य व तिर्यंचों का प्रतिषेध हो जाता है। क्योंकि इनकी अकालमत्य नहीं होती है। यदापि असंज्ञी जीवों की तथा घातायष्कवाले संज्ञी की जघन्य आय अन्तर्महर्त कही है.फिर भी पूर्वोक्त असैनी के अन्तर्मुहर्त की अपेक्षा सैनी जीवों की आयु का अन्तर्मुहर्त बड़ा है। चूंकि एकेन्द्रियों में क्षुद्रभवग्रहण कालमात्र कहा है इसीसे ही यह अर्थ सूचित हो जाता है। तात्पर्य यही हआ कि सभो असैनी जीवों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। तथा अकालमृत्युसहित .मभूमिज, कर्मभूमिप्रतिभागज, सैनी तिर्यंच एवं त्रेसठशलाकापुरुष और चरम देहादि धारी मनुष्यों के अतिरिक्त शेष मनुष्यों की भी जघन्य आयु अन्तर्मुहुर्त ही है। यद्यपि पूर्व सूत्रों द्वारा प्रमाण कहा गया है फिर भी विशेष रुप से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से प्रमाण चार प्रकार का है। उसमें से द्रव्य प्रमाण संख्यातप्रमाण और उपमान के भेद से दो प्रकार का है। उसमें से अब संख्यात प्रमाण का निरूपण करते हैं गाथार्थ-प्रथम को संख्यात, द्वितीय को असंख्यात और तृतीय को अनन्त जानो। उनमें से प्रथम के तीन भेद हैं । अन्य दोनों नव-नव भेदरूप हैं ॥११२७।। माचारवृत्ति-संख्यात-दो संख्या को आदि लेकर एक कम जघन्य परीत संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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