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________________ पर्याप्यधिकार। ] [ २७३ सर्षपैश्च सम्पूर्ण कृत्वा द्वीपे समुद्र े च सर्षपक्षेपं, चतुर्थप्रदेशे शलाकाकुण्डे सर्षपक्षेप चैवं तावत्कर्त्तव्यं यावच्छलाका प्रतिशलाका महाशलाकानवस्थितानि कुण्डानि सर्वाणि पूर्णानि । तदोत्कृष्ट संख्यातमतिलंध्य जघन्यपरीतासंख्यातप्रमाणं जातं तस्मादेके सर्षपेऽपनीते जातमुत्कृष्टसंख्यातम् असंख्यातं च परीता संख्यातं युक्तासंख्यातसंख्यातमिति त्रिविधं, परीता संख्यातमपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधं युक्तासंख्यातमसंख्याता संख्यातं च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधं तथानन्तमपि परीतानन्तयुक्तानन्तानन्तानन्तभेदेन त्रिविधमेकैकं जघन्यगध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधम् । जघन्यपरीतासंख्यातानि जघन्यपरीता संख्यातमात्राणि परस्पर गुणितानि कृत्वा तत्र यावन्मात्राणि रूपाणि तावन्मात्रं जघन्ययुक्तासंख्यातप्रमाणं तस्मादेके रूपेऽपनीते उत्कृष्टं परीता संख्यातप्रमाण एक-एक क्षेपण करता चला जावे। जब यह अनवस्थित कुण्ड भी खाली हो जावे तब पुनः एक सरसों उस शलाका कुण्ड में डाल देवे । इस विधि को तब तक करते रहना चाहिए कि जब तक शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका और अनवस्थित ये सभी कुण्ड पूर्णतया भर न जावें । तब उत्कृष्ट संख्यात का उल्लंघन करके जघन्यपरीतासंख्यात नाम का प्रमाण बन जाता है । इसमें से एक सरसों निकाल देने पर उत्कृष्ट संख्यात होता है । भावार्थ - उपर्युक्त प्रकार से एक एक अनवस्था कुण्ड की एक एक सरसों शलाका कुण्ड में डालते-डालते जब वह भी ऊपर तक भर जाय, तब एक सरसों प्रतिशलाकाकुण्ड में डालिए। इसी तरह एक-एक अनवस्था कुण्ड की एक-एक सरसों शलाकाकुण्ड में डालतेडालते जब दूसरी बार भी शलाकाकुण्ड भर जाय तो दूसरी सरसों प्रतिशला काकुण्ड में डालिए । एक-एक अनवस्थाकुण्ड की एक-एक सरसों शलाकाकुण्ड में और एक-एक शलाकाकुण्ड की एकएक सरसों प्रतिशलाकाकुण्ड में डालते डालते जब प्रतिशलाकाकुण्ड भी भर जाय, तब एक सरसों महाशलाकाकुण्ड में डालिए । जिस क्रम से एक बार प्रतिशलाकाकुण्ड भरा है, उसी क्रम से दूसरी बार भरने पर दूसरी सरसों महाशलाकाकुण्ड में डालिए। इसी तरह एक-एक प्रतिशलाकाकुण्ड की सरसों महाशलाकाकुण्ड में डालते डालते जब महाशलाकाकुण्ड भी भर जाय उस समय सबसे बड़े अन्त के अनवस्थाकुण्ड में जितनी सरसों समायीं उतना ही जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण होता है । असंख्यात के परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात ऐसे तीन भेद हैं । परीता संख्यात के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भेद हैं । ऐसे ही युक्त संख्यात और असंख्याता संख्यात के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन-तीन भेद हो जाते हैं । ऐसे अनन्त के भी परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से तीन भेद होते हैं । इन तीनों भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन भेद होने से नौ भेद हो जाते हैं । जघन्य परीता संख्यात को जघन्य परीतासंख्यात मात्र बार परस्पर में गुणा करने से उसमें जितने मात्र रूप आवें उतने मात्र को जघन्य युक्तासंख्यात कहते हैं । उसमें से एक रूप के निकाल देने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण हो जाता है । अर्थात् जघन्य परीतासंख्यात में जितनी सरसों हैं उतनी बार जघन्य परीतासंख्यात की संख्या पृथक्-पृथक् रखकर परस्पर में गुणित करके जघन्य युक्तासंख्यात' हुआ । उसमें से एक सरसों कम कर देने से उत्कृष्ट परोता १. इस जघन्य युक्तासंख्यात में जितनी सरसों हैं उतने समयों की एक आवली होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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