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________________ पर्याप्तत्यधिकार। ] [ २५ पणयं - पंच सौधर्मेशानयोर्देवीनां पंचपल्योपमानि परमायुः । दस सत्तधियं - दश सप्ताधिकानि सानत्कुमार माहेन्द्रयोर्देवीनां परमायुः सप्तदशपल्योपमानि, पणवीस - पंचविंशतिः ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोदेवीनां पंचविशतिः पल्योपमानि परमायु:, तीसमेव पंचधियं - त्रिशदेव पंचाधिका लान्तवकापिष्ठयोदेवीनां त्रिशदेव पंचाधिका पल्योपमानां परमायुः चत्तालं - चत्वारिंशच्छुक्रमहाशुक्रयोदेवीनां चत्वारिंशत्पल्यानां परमायुः, पणबालं - पंचचत्वारिंशत् शतारसहस्रारयोर्देवीनां पंचचत्वारिंशत्पल्योपमानां परमायुः, पण्णासं - पंचाशद् आनत प्राणतोदेवीनां परमायुः पंचाशत्पल्योपमानि पण्णपणाओ - पंचपंचाशदारणाच्युतयोर्देवीनां परमायुषः प्रमाणं पंचपंचाशत्पल्योपमानि । आऊ– आयुः सर्वत्रानेन संबन्धः । देवायुषः प्रतिपादनन्यायेनायमेवोपदेशो न्याय्योऽत्रैवकार करणादथवा द्वावप्युपदेशो ग्राह्यो सूत्रद्वयोपदेशाद् द्वयोर्मध्य एकेन सत्येन भवितव्यं, नात्र सन्देहमिथ्यात्वं यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति सन्देहाभावात् । छद्यस्थैस्तु विवेकः कर्तुं न शक्यतेऽतो मिध्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति ॥ ११२३॥ ज्योतिषां यद्यपि सामान्येन प्रतिपादितं जघन्यं चोत्कृष्टमायुस्तथापि स्वामित्व पूर्वको विशेषो नावगतस्तत्र तत्प्रतिपादनायाह चंदस्स सदसहस्सं सहस्स रत्रिणो सवं च सुक्कस्स । वासाषिए हि पल्लं लेहिट्ठ वरिसणामस्स ॥ ११२४॥ # 2 परमायुरित्यनुवर्तते --चंबस्स चन्द्रस्य, सबसहस्तं - शतसहस्रं शतसहस्र ेण, अत्र तृतीयार्थे द्वितीया, सहस्स– सहस्रेण, रविणो - वेरादित्यस्य, सवं च - शतेन च, सुक्कस्स – शुक्रस्य, वास — वर्षाणां अधियं आचारवृत्ति - सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में सत्रह पल्य है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में पच्चीस पल्य है। लान्तव- कापिष्ठ में पैंतीस पल्य है । शुक्र-महाशुक्र में चालीस पल्य है । शतार- सहस्रार में पैंतालीस पल्य है । आनप्राणत में पचास पल्य है और आरण-अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है । देवियों की आयु के प्रतिपादन की रीति से यही उपदेश न्यायसंगत है, क्योंकि यहाँ पर 'एवकार' किया गया है । अथवा दोनों भी उपदेश ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं । यद्यपि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिए फिर भी दोनों को ग्रहण करने में संशय मिथ्यात्व नहीं होता है, क्योंकि जो अर्हन्त के द्वारा प्रणीत है वह सत्य है इसमें सन्देह का अभाव है। फिर भी छद्मस्थ जनों को विवेक कराना अर्थात् कौन-सा सत्य है यह समझाना शक्य नहीं है इसलिए मिथ्यात्व के भय से दोनों का ही ग्रहण करना उचित है । ज्योतिषी देवों की यद्यपि सामान्य से जघन्य और उत्कृष्ट आयु कही है फिर भी वहाँ स्वामित्वपूर्वक विशेष का बोध नहीं हुआ, उसका प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं गाथार्थ - चन्द्र की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य, सूर्य की सहस्र वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्र की सौ वर्ष अधिक एक पल्य, बृहस्पति की सौ वर्ष कम एक पल्य आयु है ।। ११२४ ॥ श्राचारवृत्ति - उत्कृष्ट आयु की अनुवृत्ति चली आ रही है तथा यहाँ गाथा में 'शतसहस्र" आदि में तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। अतः ऐसा अर्थ करना कि उत्कृष्ट आयु * फलटन से प्रकाशित, मूलाचार में ये दो गाथाएँ ११२० गाथा के अनंतर ही थीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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