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________________ २६०] मूलाधारे। सौधर्मादिदेवीनां परमायुषः प्रमाणं प्रतिपादयन्नाह पंचादी वेहि जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं । तत्तो सत्तुत्तरिया जावदु अरणप्पयं कप्पं ॥११२२॥ पंचादी-पंच आदि पंच आदि पंचपल्योपमानि मूलं, वेहिं जुदा-द्वाभ्या युक्तानि द्वाभ्यां द्वाभ्यामधिकानि, वीप्सार्थों द्रष्टव्यः उत्तरोत्तरग्रहणात् । सत्तावीसा य-सप्तविंशतिः "चशब्दो यावच्छन्दं समुच्चिनोति"। पल्ल-पल्यानि पल्योपमानि यावत्सप्तविंशतिःपल्योपमानि, देवीणं-देवीनां देवपत्नीनां, तत्तो-ततः पल्यानां सप्तविंशतेरूध्वं, सत्त-सप्तसप्त, उत्तरिया-उत्तराणि सप्तसप्ताधिकानि पल्योपमानि, जावायावत, अरणप्पयं कप्पं---अच्युतकल्प: तावत् । सौधर्मकल्पे देवीनां परमायुः पंचपल्योपमानि, ईशाने सप्त पल्योपमानि, सानत्कुमारे नव पल्योपमानि, माहेन्द्र एकादश पल्योपमानि, ब्रह्मकल्पे त्रयोदश पल्योपमानि, ब्रह्मोत्तरे पंचदश पल्योपमानि, लान्तवे सप्तदश पल्योपमानि, कापिष्ठे एकोनविंशतिः पल्योपमानि, शुक्र एकविंशतिः पल्योपमानि, महाशुक्र त्रयोविंशतिः पल्योपमानि, शतारे पंचविंशतिः पल्योपमानि, सहस्रारे सप्तविंशतिः पल्योपमानि, आनते चतुस्त्रिशत्पल्योपमानि, प्राणते एकाधिकचत्वारिंशत् पल्योपमानि, बारणे अष्टचत्वारिंशत्पल्योपमानि, अच्युते पंचपंचाशत्पल्योपमानि सर्वत्र देवीनां परमायुषःप्रमाणमिति संबन्धः पंचपल्योपमानि द्वाभ्यां द्वाभ्यां तावदधिकानि कर्तव्यानि यावत्सप्तविंशतिः पल्योपमानि भवन्ति, ततः सप्तविंशतिः सप्तभिः सप्तभिरधिका कर्तव्या यावदच्युतकल्पे पंचाशत्पल्योपमानि संजातानीति ॥११२२॥ देवीनामायुषः प्रमाणस्य द्वितीयमुपदेशं प्रतिपादयन्नाह पणयं वस सत्तषियं पणवीसं तीसमेव पंचषियं । चत्तालं पणदालं पण्णाओ' पण्णपण्णाओ॥११२३॥. बह्मा सौधर्म आदि देवियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-देवियों की आयु पाँच से लेकर दो-दो मिलाते हुए सत्ताईस पल्य तक करें। पुनः उससे आगे सात-सात बढ़ाते हुए आरण-अच्युत पर्यन्त करना चाहिए ॥११२२॥ आचारवत्ति-सौधर्म कल्प में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है । ईशानस्वर्ग में सात पल्य, सानत्कुमार में नौ पल्य, माहेन्द्र स्वर्ग में ग्यारह पल्य, ब्रह्मकल्प में तेरह पल त्तर में पन्द्रह पल्य, लान्तव में सत्रह पल्य, कापिष्ठ में उन्नीस पल्य, शुक्र में इक्कीस पल्य, महाशुक्र में तेईस पल्य, शतार में पच्चीस पल्य, सहस्रार में सत्ताईस पल्य, आनत में चौंतीस पल्य प्राणत में इकतालोस पल्य, आरण में अड़तालीस पल्य और अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है । अर्थात् पाँच पल्य से शुरू करके सहस्रार स्वर्ग की सत्ताईस पल्य तक को-दो पल्य बढ़ायी गयी है। पुनः आगे सात-सात पल्य बढ़ कर सोलहवें स्वर्ग में पचपन पल्प हो गयी है। देवियों की आयु के प्रमाण का दूसरा उपदेश कहते हैं गाथार्थ-युगल-युगल स्वों में क्रम से पांच पल्य, सत्रह पल्य, पच्चीस पल्य, पैतीस पल्य, चालीस पल्य, पैंतालीस पल्य, पचास पल्य बौर पचपन पल्य आयु है ।।११२३॥ १.. पंचासं पंचपण्यायो। • यह गावा फलटन से प्रकाशित मूलाचार नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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