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________________ पर्याप्त्यधिकारः] [२४९ गेरइया-एकेन्द्रिया नारकाश्च, संपुडजोणी - संवृतयोनयः, संवृता योनिर्येषां ते संवृतयोनयः दुरुपलक्ष्योत्पत्तिप्रदेशाः, हवंति-भवन्ति, देवा य-देवाश्च संवृतयोनय. विलिंदिया-विकलेन्द्रियाश्च द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः, वियडा-विवृतयोनयश्च, तात्स्थ्यात्ताच्छन्द्यं, संपुडवियडा य-संवृतविवृता, संवृतविवृतयोनयः, गम्भेष-गर्भेषु स्रिया उदरे "शुक्र-शोणितयोमिश्रणं गर्भः" । देवनारकैकेन्द्रियाः संवृतयोनयः, विकलेन्द्रिया ये ते विवृतयोनयः, गर्भेषु ये ते संवृतविवृतयोनयः भवन्तीति ।।११०१।। 'पुनस्तेषां विशेषयोनित्वमाह-- - अच्चित्ता खल जोणी रइयाणं च होइ देवाणं। मिस्सा य गब्भजम्मा तिविहा जोणी दु सेसाणं ॥११०२॥ अच्चित्ता-निश्चेतना, खल--स्फुटं, जोणी-योनिः, णेरइयाणं च-नारकाणां च होइ-भवति देवाणं-देवानां चशब्दोऽत्र संबन्धनीयः । मिस्सा य-मिश्रा सचित्ताचित्ता च, गब्भजम्मा-गर्भजन्मनां गर्भजानाम् । तिविहा—विविधा त्रिप्रकारा, जोणी दु-योनिस्तु, सेसाणं-शेषाणां, सम्मूर्छनजन्मनामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रयपंचेन्द्रियाणां देवनारकाणां गर्भजवजितपंचेन्द्रियाणां च देवनारकाणाम् अचित्तयोनयः. गर्भजाः सचित्ताचित्तयोनयः, शेषाः पुनरेकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्ताः केचन सचित्तयोनयः केचन अचित्तयोनयः केचन सचित्ताचित्तयोनयश्च भवन्तीति ॥११०२॥ पुनरपि तेषामेव विशेषयोनिस्वामित्वमाह सीदुण्हा खलु जोणी जेरइयाणं तहेव देवाणं । तेऊण उसिणजोणी तिविहा जोणी दु सेसाणं ॥११०३॥ जीव, नारकी और देव संवृत योनि में जन्म लेते हैं । अर्थात् इनकी उत्पत्ति के स्थान दिखते नहीं हैं। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव विवृत योनि में जन्म लेते हैं । तथा गर्भ से जन्मने वालों की योनि संवृतविवृत है। माता के उदर में शुक्र और शोणित के मिश्रण को गर्भ कहते हैं । इन गर्भज जीवों का जन्म संवृत-विवृत योनि से होता है। पुनः उनकी विशेष योनि को कहते हैं गाथार्थ-नारकी और देवों की अचित्त योनि होती है । गर्भ जन्मवालों की मिश्र योनि है तथा शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं ॥११०२॥ आचारवत्ति-नारकियों की और देवों की अचित्त-निश्चेतन योनि होती है। गर्भज जीवों की सचित्ताचित्त नामक मिश्र योनि होती है । तथा शेष-सम्मूर्च्छन एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में से किन्हीं के सचित्त योनि है, किन्हीं के अचित्त और किन्हीं के सचिताचित्त योनि होती है। पुनरपि उन्हीं जीवों की विशेष योनि को कहते हैं गाथार्थ-नारकी और देवों के शोतोष्ण योनि है, अग्निकायिक जीवों की उष्ण योनि है तथा शेष जीवों के तीन प्रकार की योनि होती हैं ॥११०३॥ १. क पुनरपि विशेषयोनिस्वामित्वमाह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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