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________________ २४८] [ मूलाचारे स्वामित्वपूर्वकं योनिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह - एइंदिय रइया संपुडजोणी हवंति देवा य । विलिदिया य वियडा संपुडवियडा य गन्भेसु ॥११०१॥ सचित्तशीतसंवृताचित्तोष्णविवृतभेदैः सचित्ताचित्तशीतोष्णसंवृतविवृतभेदैश्च नवप्रकारा योनि र्भवति । यूयते भवपरिणत आत्मा यस्यामिति योनिर्भवाधारः । आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तं सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं, शीत इति स्पर्शविशेषः 'शुक्लादिवदुभयवचनत्वाद्युक्तद्रव्यमप्याह' । सम्यग्वृतः संवृतः दुरुपलध्यप्रदेशो'ऽचित्तरहितपुद्गलप्रचयप्रदेशो वा, उष्णः सन्तापपुद्गलप्रचयप्रदेशो वा, विवृतो संवृतः प्रकटपुद्गलप्रचयप्रदेशो वा, उभयात्मको मिश्रः सचित्ताचित्तः शीतोष्णः संवृतविवृतश्च एतैर्भेदैश्च नवयोनयः सम्मूच्र्छनगर्भोपपादानां जन्मनामाधारा भवन्ति एतेषु प्रदेषु जीवा सम्मूच्र्छनादिस्वरूपेणोत्पद्यन्त इति । तत्र एइंदिय स्पृष्ट शब्दों को ग्रहण करती है । सो ही कहा है पढें सुणेइ सदं अपुट्ठ पुण वि पस्सदे रुवं । फास रस च गंध बद्धं पुट्ठ वियाणे इ॥' अर्थ-श्रोत्रेन्द्रिय स्पष्ट शब्द को सुनती है। चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है। स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय क्रमशः बद्ध और स्पृष्ट स्पर्श, रस और गन्ध को जानती हैं। स्पर्शन रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों की योग्यता यहाँ बद्धस्पष्ट को ग्रहण करने की है किन्तु गोम्मटसार में अबद्ध-स्पृष्ट कहा है। स्वामित्वपूर्वक योनि का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-एकेन्द्रिय जीव, नारकी और देव ये संवृत योनिवाले होते हैं । विकलेन्द्रिय जीव विवत योनिवाले हैं और गर्भ में जन्म लेनेवाले संवृतविवृत योनिवाले होते हैं ।।११०१।। आचारवत्ति-सचित, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ऐसे योनि के नव भेद होते हैं । 'यूयते यस्यां इति योनिः' अर्थात् भव परिणत आत्मा जिसमें मिश्रण अवस्था को प्राप्त होता है या मिलता है उस भव के आधार का नाम योनि है। आत्मा का चैतन्यविशेष परिणाम चित्त है उस चित्त के साथ रहनेवाली सचित्त योनि है। ठण्डे स्पर्श विशेष को शीत कहते हैं, 'शुक्लादि के समान उभय को-गुण-गुणी को कहनेवाला होने से शीत से युक्त द्रव्य को भी शीत कहते हैं। सं-अच्छी तरह से वृत-ढके हुए को संवृत कहते हैं अर्थात् दुरूपलक्ष्य प्रदेश । चित्त रहित पुद्गल के समूह युक्त प्रदेश को अचित्त कहते हैं । सन्तापकारी पुद्गल समूहयुक्त प्रदेश उष्ण है । प्रकट पुद्गल समूहयुक्त प्रदेश को विवृत कहते हैं । उभयात्मक को मिश्र कहते हैं। वह तीन प्रकार का है-सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत। जन्म के तीन भेद हैं-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद । इन जन्म के लिए आधारभूत योनि नव भेदरूप है । अर्थात् इन प्रदेशों में जीव सम्मूर्च्छन आदि स्वरूप से उत्पन्न होते हैं । एकेन्द्रिय १. क प्रदेशः अचित्तः चित्तरहित-। २. गोम्मटसार इन्द्रिय मार्गणा के आ० से। ३. एता नवयोनयः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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