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________________ २५० ] [ मूलाचारे सीदुण्हा-शीतोष्मा, खलु-स्फुटं, जोणी-योनि:, रइयाणं-नारकाणां, तहेव देवाणं-तथैव देवानां, तेऊण-तेज:कायानां, उसिगजोणी-उष्णयोनिः । तिविहा–त्रिविधा, शीता-उष्णा-शीतोष्णा, जोणी दु-योनिस्तु, सेसाणं-शेषाणां पृथिवीकायाप्कायवायुकायवनस्पतिकायद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां देवनारकवजितपंचेन्द्रियाणाम् । देवनारकाणां शीतोष्णा च योनिः तेषां हि कानिचिच्छीतानि' कानिचिदुष्णानि तेजःकायिकानां पुनरुष्ण एव योनि: शेषाणां तु त्रिविधो योनिस्ते च केचिच्छीतयोनयः केचिदृष्णयोनयः केचिच्छीतोष्णयोनयः अप्कायिकाः शीतयोनय एवेति ॥११०३।। पुनरप्येताषां योनीनां विशेषयोनिस्वरूपमाह संखावत्तयजोणी कुम्मुण्णद वंसपत्तजोणी य। तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवज्जए गब्भो॥११०४॥ संखावत्तय-शंख इव 'आवर्तो यस्य शंखावर्तका जोणी-योनिः कुम्मण्णद-कूर्म इवोन्नता कूर्मोन्नता, वंशपत्तजोणीय -वंशपत्रमिव योनिवंशपत्रयोनिः । तत्र च तेषु च मध्ये शंखावर्ते नियमात, विवज्जए.-विपद्यते विनश्यति गर्भो 'गर्भःशुक्रशोणितगरणम्' । शंखावर्तकर्मोन्नतवंशपत्रभेदेन त्रिविधा योनिस्तत्र च शंखावर्तयोनी नियमाद्विपद्यते गर्भः अतः तद्वती वंध्या भवतीति ॥११०४॥ तेषु य उत्पद्यन्ते तानाह आचारवृत्ति-देवों में तथा नारकियों में किन्हीं के शीत योनि है और किन्हीं के उष्ण योनि है। अग्निकाय जीवों के उष्ण योनि ही है। तथा शेष—पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं देव-नारकी के अतिरिक्त पंचेन्द्रिय में से किन्हीं के शीत योनि, किन्हीं के उष्ण योनि और किन्हीं के शीतोष्ण योनि होती है । जलकायिक जोवों के शीत योनि ही है। पुनरपि इन जीवों के विशेष योनि भेद कहते हैं-- गाथार्थ-शंखावर्तक योनि, कूर्मोन्नतयोनि और वंशपत्रयोनि ये तीन प्रकार की • योनियाँ हैं । उनमें से शंखावर्त योनि में नियम से गर्भ नष्ट हो जाता है ॥११०४।। आचारवृत्ति-शंख के समान आवर्त जिसमें हैं वह शंखावर्तक योनि है। कछुए के समान उन्नत योनि कूर्मोन्नत कहलाती है और बाँस के पत्र के समान योनि को वंशपत्र योनि कहते हैं। इनमें से शंखावर्तक योनि में गर्भ नियम से विनष्ट हो जाता है, अतः शंखावर्तक योनिवाली स्त्री वंध्या होती है। शुक्र और शोणित का गरण-मिश्रण होना गर्भ कहलाता है। इन योनियों में उत्पन्न होनेवालों को बताते हैं १. क कानिचिदुपपादस्थानानि । २. क आवर्ता यस्यां सा। ३. क अतएव वंध्या। ४. गोम्मटसार में छाया में 'विवज्यते' पाठ है जिसका अर्थ यह हुआ कि गर्भ नहीं रहता है। ५. देवीनां चक्रवर्तिस्त्रीरत्नादीनां कासांचित् तथाविध(शंखावर्त)योनिसम्भवात् [गोम्मटसार गाथा ८२] की टिप्पणी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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