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________________ 'पर्याप्यधिकारा [ २४३ इगुणतीसजोयणसदाइं चउवण्णाय होइ णायव्वा । चरिदियस्स णियमा चक्खुप्फासं वियाणाहि ॥१०६५॥ इगणतीसजोयणसदाइं–एकोनत्रिंशद्योजनशतानि योजनानामेकोनानि त्रिशच्छतानि, चउवण्णाय-चत:पंचाशच्चतभिरधिका च पंचाशद्योजनानां, होइ ---भवति, णायव्या-ज्ञातव्यानि । चरिवियस्स-चतुरिन्द्रियस्य, णियमा-नियमात् निश्चयेन । चक्खुप्फासं-चक्षुःस्पर्श चक्षुरिन्द्रियविषयं वियाजाहि-विजानीहि । इमं चतुरिन्द्रियस्य चक्षरिन्द्रियविषयं योजनानामेको नत्रिशच्छतं चतःपंचाशद्योजनाधिक विजानीह्यसंदेहेनेति । न चक्षुषः प्राप्तग्राहित्वं चक्षु स्थांजनादेरग्रहणात्, न च गत्वा गृह्णाति चक्षुःप्रदेशशून्यत्वप्रसंगात् । नापि विज्ञानमयं चक्षुर्गच्छति जीवस्याज्ञत्वप्रसंगान न च स्वतोऽर्धस्वरूपेण गमनं युज्यतेऽन्तरे सर्ववस्तु ग्रहणप्रसंगाद् इति ॥१०६५॥ असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य चक्षुर्विषयं प्रतिपादयन्नाह उणसट्टि जोयणसदा अट्ठव य होंति तह य णायव्वा । असण्णिपंचेंदीए चक्खुप्फासं वियणाहि ॥१०६६॥ ऊणसहिएकोनषष्टिः, एकेनोना षष्टिः । जोयणसदा-योजनानां शतानि योजनशतानि, अठेव य-अष्टावपि च योजनानि, होंति-भवन्ति । तह य गायव्वा-तथैव ज्ञातव्यानि, असण्णिपंचेंदीए-असंज्ञि गाथार्थ-नियम से चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु का विषय उनतीस सौ चौवन योजन कहा है, ऐसा जानो ॥१०६५॥ आचारवृत्ति--चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय उनतीस सौ चौवन योजन प्रमाण है इसमें सन्देह नहीं है। चक्षु इन्द्रिय प्राप्त किये को ग्रहण करनेवाली नहीं है, क्योंकि वह अपने में स्थित अंजन आदि को ग्रहण नहीं कर सकती है, वह चक्षु अन्यत्र जाकर भी वस्तु को ग्रहण नहीं करती है अन्यथा चक्षु के स्थान में शून्यता का प्रसंग आ जावेगा। यदि आप कहें कि ज्ञानमयी चक्षु चली जाती है सो यह भी बात नहीं है, अन्यथा जीव को अज्ञज्ञानरहित होने का प्रसंग आ जावेगा । वह स्वतः अर्धस्वरूपसे गमन करके पदार्थ को जानती है ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, अन्यथा अन्तराल की समस्त वस्तुओं को ग्रहण करने का प्रसंग आ जाता है अर्थात् चक्षु क्रम से अपनी ग्राह्य वस्तु के पास जाकर उसे जानती है ऐसा कहने से तो बीच के अन्तराल की सभी वस्तुओं का भी ज्ञान होते जाना आवश्यक ही होगा किन्तु ये सब बातें घटित नहीं होती हैं, अतः इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, वस्तुओं को बिना छुए ही जानती है ऐसा मानना ही उचित है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का विषय बतलाते हैं-- गाथार्थ उनसठ सौ आठ योजन प्रमाण असंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षु का स्पर्श होता है ऐसा तुम जानो ॥१०६६।। आचारवृत्ति-शिक्षा, आलाप आदि को नहीं ग्रहण कर सकने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय १. क एकान्न । २. क मेकान्न-। ३. ख, ग सन्तान स्वरूपेण। ४. क णादव्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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