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________________ २४२ ] [ मूलाचारे त्रीन्द्रियस्य रसनेन्द्रियविषयोऽष्टाविशत्यधिकं च शतं धनुषां एतावताध्वना स्थितं रसं गृह्णाति, श्रीन्द्रियः रसनेन्द्रियेण तथा तस्यैव त्रीन्द्रियस्य घ्राणेन्द्रियविषयः शतं धनुषां एतावताध्वना स्थितं गन्धं गृह्णाति त्रीन्द्रियो घ्राणेन्द्रियेण तथा चतुरिन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियविषयो द्विशताधिकानि त्रीणि सहस्राणि धनुषामेतावताध्वना स्थितं स्पशं गृह्णाति चतुरिन्द्रियः स्पर्शनेन्द्रियेण तथा तस्यैव चतुरिन्द्रियस्य रसनेन्द्रियविषयो धनुषां द्वे शते षट्पंचाशदधिके एतावताध्वना स्थितं रसं चतुरिन्द्रियः रसनेन्द्रियेण गृह्णाति तथा तस्यैव चतुरिन्द्रियस्य घ्राणेन्द्रियविषयो द्वे शते धनुषामेतावताध्वना स्थितं गन्धं गृह्णाति चतुरिन्द्रियो घ्राणेन्द्रियेण तथाऽसंज्ञिपचेन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियविषयः चतुःशताधिकानि षट्सहस्राणि धनुषामेतावत्यध्वनि स्थितं स्पर्शमसंज्ञिपंचेन्द्रियो गृह्णाति, स्पर्शनेन्द्रियेण तथा तस्यैवासंज्ञिपंचेन्द्रियस्य रसनेन्द्रियविषयः द्वादशोत्तराणि पंचशतानि धनुषामेतावत्यध्वनि स्थितं रसं गृह्णाति असंज्ञिपंचेन्द्रियो रसनेन्द्रियेण तथा तस्यैवासंज्ञिपंचेन्द्रियस्य घ्राणेन्द्रियविषयो धनुषां चत्वारि शतानि एतावताध्वना स्थितं गन्धं गृह्णाति असंज्ञिपंचेन्द्रियो घ्राणेन्द्रियेण । न चैतेषामिन्द्रियाणां प्राप्तग्राहित्येनैतावताध्वना ग्रहणमयुक्तमप्राप्तग्राहित्वमपि यतो युक्त्या आगमेन च न विरुध्यते, युक्तिस्तावदेकेन्द्रियो दूरस्थमपि वस्तु जानाति पादप्रसारणाद् यस्यां दिशि वस्तु सुवर्णादिकं स्थितं, प्रारोहं प्रसारयत्येकेन्द्रियो वनस्पतिः । अवष्टंभप्रदेशे च नालानि व्युत्सृजतीति । तथागमेऽपि स्पर्शनेन्द्रियादीनामप्राप्तग्राहित्वं पठितं षत्रिशस्त्रिशत इति विकल्पस्य कथनादिति ॥ १०६४ | चतुरिन्द्रियस्य चक्षुविषयं प्रतिपादयन्नाह - अट्ठाईस धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं । चार इन्द्रिय जीव स्पर्श इन्द्रिय द्वारा तीन हजार दो सौ धनुष पर्यन्त स्थित स्पर्श को विषय कर लेते हैं, ये ही जीव रसना इन्द्रिय द्वारा दो सौ छप्पन धनुष पर्यन्त स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं, घ्राणेन्द्रिय द्वारा दो सौ धनुष तक स्थित गन्ध को विषय कर लेते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय का विषय छह हजार चार सौ धनुष प्रमाण है अर्थात् वे इतने प्रमाण पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं, रसना इन्द्रय द्वारा ये पाँच सौ बारह धनुष पर्यन्त को ग्रहण कर लेते हैं एवं घ्राणेन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं । शंका--- ये इन्द्रियाँ प्राप्त करके ग्रहण करती हैं, इसलिए इतनी दूर तक स्थित स्पर्श, रस, गन्ध को ग्रहण नहीं कर सकती हैं ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि इनका बिना प्राप्त किये भी ग्रहण करना सिद्ध है । युक्ति तथा आगम से इन इन्द्रियों का प्राप्त किये बिना ग्रहण करना विरुद्ध नहीं है । युक्ति - एकेन्द्रिय जीव पाद अर्थात् जड़ को फैलाने से दूर स्थित वस्तु को भी जान लेते हैं अर्थात् जिस दिशा में सुवर्ण आदि वस्तुएँ गड़ी हुई हैं उधर ही एकेन्द्रिय वनस्पति जीव अपनी जड़ फैला लेते हैं । और अवष्टम्भ-वस्तुयुक्त प्रदेश में अपने नाल - शिराओं को फैला देते हैं । आगम में भी स्पर्शन आदि इन्द्रियों को अप्राप्तग्राही माना गया है, क्योंकि स्पर्शन आदि युक्त मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस विकल्प कहे गए हैं । चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय का विषय प्रतिपादित करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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