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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ २३७ पर्याप्तानां भोगभूमितिरश्चां देहस्योत्कृष्ट आयामस्त्रीणि गव्यूतानि । अथवा स्थलगर्भजपर्याप्ता उत्कृष्टदेहस्यायामेन त्रिगव्यूतानि भवन्तीति ॥ १०६८।। पृथिवीकायिकाकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकानां मनुष्याणां चोत्कृष्टं देहप्रमाणं प्रतिपाद यन्नाह अंगुल असंखभागं बादरसुहुमा य सेसया काया । उक्कस्से दुणियमा मणुगा य तिगाउ उव्विद्धा ॥१०८६ ॥ अंगुलं- द्रव्यांगुलमष्टयव निष्पन्नांगुलेन येऽवष्टब्धा नभः प्रदेशास्तेषां मध्येऽनेकस्याः प्रदेशपंक्त र्यावदायामस्तावन्मात्रं द्रव्यांगुलं तस्यांगुलस्य असं खभागं - असंख्यात भाग:- अंगुल मसंख्यातखण्डं कृत्वा तत्रैकखण्डमंगुला संख्यात भागः, बादरसुहमा य - बादरनामकर्मोदया द्वादशः सूक्ष्म नामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादराश्च सूक्ष्माश्च बादरसूक्ष्माः पृथिवीकायादयः, सेसया - शेषा उक्तानां परिशेषाः कायाः पृथिवीकाया कायतेजः काय वायुकायाः, उक्कस्सेण— उत्कृष्टेन सुष्ठु महत्त्वेन, तुविशेषः णियमा - नियमान्निश्चयात्, मणुया - मनुष्या भोगभूमिजाः, तिगाउ — त्रिगव्यूतानि, उव्विद्धा - उद्वृद्धाः परमोत्सेधाः । सर्वेऽपि बादरकायाः (सूक्ष्माश्च ) पृथिवीकायिकादिवायुकायिकान्ता द्रव्यां गुलासंख्यभागशरीरोत्सेधा मनुष्याश्च पर्याप्ता स्त्रिगव्यूतशरीरोत्सेधा । उत्कृष्ट प्रमाणेन नात्र पोनरुक्त्यं पर्याप्तिमनाश्रित्य सामान्येन कथनादिति ||१०८६ ॥ पुनरपि सर्वजघन्यं सर्वोत्कृष्टं शरीरप्रमाणमाह सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि । हवदि दु सव्वजहण्णं सव्वुक्कस्सं जलचराणं ॥ १०६० ॥ स्थलचर, गर्भज पर्याप्तक अर्थात् भोगभूमिज तिर्यंचों का शरीर तीन कोश प्रमाण है । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और मनुष्य इनके उत्कृष्ट शरीर का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ -- शेष पृथिवी आदि काय बादर-सूक्ष्म अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीरवाले हैं और नियम से मनुष्य उत्कृष्ट से तीन कोश ऊँचाईवाले हैं ।। १०८६ ॥ I आचारवृत्ति - बादर नाम कर्मोदय से बादरजीव होते हैं और सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से सूक्ष्म होते हैं । ये पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय जीव हैं । ये जीव द्रव्य अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीरवाले हैं । अर्थात् आठ जौ से निष्पन्न अंगुल में असंख्यात आकाश प्रदेश हैं उसके असंख्यात भाग करने पर एक भाग में भी असंख्यात प्रदेश हैं । इस असंख्यातवें भाग प्रमाण इनकी अवगाहना है। पर्याप्तक मनुष्यों का उत्कृष्ट शरीर तीन कोश प्रमाण है । पुनरपि सर्वजघन्य और सर्वोत्कृष्ट शरीरप्रमाण को कहते हैं गाथार्थ -- सूक्ष्मनिगोदिया अपर्याप्तक के उत्पन्न होने के तृतीय समय में सर्वजघन्य शरीर होता है और जलचरों का शरीर उत्कृष्ट होता है ॥ १०६०॥ १. कोष्ठकान्तर्गतः पाठः क प्रतौ नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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