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________________ २३६ ] मूलाचारे जलथलगम्भअपज्जत्त-जलमुदकं, स्थलं ग्रामनगराटवीपर्वतादि, गर्भः स्त्रिया उदरे वस्तिपटलाच्छादितप्रदेशः, जलचरजीवा जलाः स्थलस्था जीवाः स्थला गर्भे जाता जीवा गर्भजा इत्युच्यन्ते तात्स्थ्यात्साहचर्याद्वा यथा मंचाः क्रोशन्तीति धनुर्धावतीति, न पर्याप्ता अपर्याप्ता अनिष्पन्नाहारादिषट्पर्याप्तयो जलाश्च स्थलाश्च ते गर्भाश्च जलस्थलगर्भास्ते च तेऽपर्याप्ताश्च जलस्थलग पर्याप्ता जलचराः स्थलचराः गर्भजाश्च येऽपर्याप्तास्त इत्यर्थः । खगथलसम्मच्छिमाय-खेआकाशेगच्छन्तीति खगाः स्थलस्थाः स्थलाः खगाश्च स्थलाश्च खगस्थला: पक्षिमृगादयस्तेचतेसम्मूच्छिमाश्च खगस्थलसम्मूच्छिमाः, पज्जत्ता--पर्याप्ताः।खगगम्भजाय---खगे जाताखगजा गर्भ जातागर्भजाः खगजाश्च ते गर्भजाश्चेति खगगर्भजाः, उभये--पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, उक्कस्सेण-उत्कर्षेण उत्कृष्टशरीरप्रमाणेन, धणुपुहत्तं-धनुःपृथक्त्वं "त्रयाणामुपरि नवानामधो या संख्या सा पृथक्त्वमित्युच्युते" धनुषांपृथक्त्वं धनुःपृथक्त्वं त्रयाणांधनुषामुपरि नवानामधश्चतुःपंचषट्सप्ताष्टधनूंषि। जलचरस्थलचरा ये गर्भजा अपर्याप्ता खगस्थलचराश्च संमूच्छिमाः पर्याप्ता ये खगगर्भजाश्च ये पर्याप्तापर्याप्ताः सर्वे ते उत्कृष्टेन शरीरप्रमाणेन धनुःपृथक्त्वं भवन्ति । अथवा देहस्येत्यनुवर्तते तेनैतेषां देह उत्कर्षेण धनुःपृथक्त्वं भवतीति ॥१०८७॥ जलस्थलगर्भजपर्याप्तानामुत्कृष्टं देहप्रमाणमाह जलगन्भजपज्जता उक्कस्सं पंचजोयणसयाणि। थलगन्भजपज्जत्ता तिगाउदोक्कस्समायामो॥१०८८॥ जलगभजपज्जत्ता-जलगर्भजपर्याप्ताः, उक्कस्सा-उत्कृष्टमुक्तर्षेण वा, पंचजोयणसयाणिपंचयोजनशतानि देहप्रमाणेनेत्यर्थः, अथवा जलगर्भजपर्याप्तानामायामः पंचयोजनशतानि उत्तरगाथार्धे आयामस्य ग्रहणं यतः । अथवा एतेषां देह उत्कृष्टः पंचयोजनशतानि । थलगभजपज्जत्ता-स्थलगर्भजपर्याप्तानां, तिगाउद-त्रिगव्यूतानि षट्दण्डसहस्राणि, उक्कस्स-उत्कृष्टः, आयामो-आयामः शरीरप्रमाणम् । स्थलगर्भज आचारवत्ति-जल-उदक; स्थल---ग्राम, नगर, अटवी, पर्वत आदि; गर्भ - माता के उदर में वस्तिपटल से आच्छादित प्रदेश; जल में होनेवाले जल, स्थल पर स्थित जीव स्थल और गर्भ से होनेवाले जीव गर्भज, ऐसा कहा है। उनमें स्थित होने से अथवा साहचर्य से ही ऐसा कथन है यथा 'मंचा क्रोशन्ति धनुर्धावति' अर्थात् मंच चिल्लाते हैं, धनुष दौड़ता है ऐसा कह देते हैं । जिनकी आहार आदि छह पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं हुई हैं वे अपर्याप्तक कहलाते हैं। ऐसे ये जलचर गर्भज अपर्याप्तक और थलचर गर्भज अपर्याप्तक इनकी उत्कृष्ट देह धनुष पथक्त्व है। तीन के ऊपर और नव के नीचे की संख्या को पृथक्त्व संज्ञा है । नभचर, थलचर संमूर्छन पर्याप्तकों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुष पृथक्त्व है तथा नभचर और गर्भज पर्याप्तक-अपर्याप्तक इन दोनों का देह प्रमाण भी धनुष पृथक्त्व है। अर्थात् जो गर्भज अपर्याप्तक जलचर थलचर हैं तथा संमछैन पर्याप्तक जो नभचर और थलचर हैं एवं जो नभचर गर्भज पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक हैं उनका शरीर उत्कृष्ट से चार, पाँच, छह, सात अथवा आठ धनुष प्रमाण है । गाथा में यद्यपि 'देह' शब्द नहीं है फिर भी उसकी अनुवृत्ति ऊपर से चली आ रही है। जलचर, थलचर, गर्भज पर्याप्तकों के उत्कृष्ट शरीर का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-जलचर, गर्भज पर्याप्तक का उत्कृष्ट देह पांच सौ योजन है। स्थलचर गर्भज पर्याप्तक की उत्कृष्ट देह तीन कोश लम्बी है ॥१०८८॥ प्रचारवत्ति-जलचर, गर्भज पर्याप्तकों का उत्कृष्ट शरीर पांच सौ योजन प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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