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________________ पर्याप्स्यधिकारा] [२३५ पर्याप्तापर्याप्तत्वमाश्रित्य जलचरस्थलचरखचराणां देहप्रमाणमाह' जलथलखगसम्मुच्छिमतिरिय अपज्जत्तया विहत्थीदु । जलसम्मुच्छिमपज्जत्तयाण तह जोयणसहस्सं ॥१०८६॥ जलथललग-- जलं चस्थलं च खं च जलस्थलखानि तेषु गच्छन्तीति जलस्थलखगा जलचरस्थल-चरखचराः, सम्मुच्छिम-सम्मच्छिमा गर्भोपपादजन्मनोऽन्ययोन्युत्पन्नाः, तिरिय-तियंचो देवमनुष्यनारकाणामन्ये जीवाः, अपज्जत्तया-अपर्याप्तका असम्पूर्णाश्च षट्पर्याप्तयः, विहत्थी दु-वितस्तिका द्वादशांगुलप्रमाणाः, अथवा जलस्थलखगसम्मूच्छिमतिर्यगपर्याप्तानां देहप्रमाणं वितस्तिः । जलसम्मुच्छिमपज्जत्तयाण-जलसम्मूच्छिमास्ते च ते पर्याप्तकाश्च जलसम्मूच्छिमपर्याप्तकास्तेषां जलसम्मच्छिमपर्याप्तकानां च अथवा जलग्रहणेन जलचरा गृह्यन्ते-प्रस्तूयन्ते, 'प्रस्तुतत्वाम्, जोयणसहस्सं-योजनानां सहस्र, जलचरसम्मूच्छिमपर्याप्तकानामुत्कृष्टं देहप्रमाणं योजनसहस्रमिति ॥१०८६।। पुनरपि तदेवाश्रित्य गर्भजत्वं चाश्रित्योत्कृष्टदेहप्रमाणमाह जलथलगम्भअपज्जत्त खगथलसमुच्छिमा य पज्जत्ता। खगगन्भजा य उभये उक्कस्सेण धणपहत्तं ॥१०८७॥ पर्याप्त और अपर्याप्त का आश्रय लेकर जलचर, स्थलचर और नभचरों के शरीर का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-जलचर, स्थलचर और नभचर संमूर्च्छन तिर्यंच अपर्याप्तकों की जघन्य देह एक वितस्ति प्रमाण है। तथा जलचर संमूर्च्छन पर्याप्तकों की देह एक हज़ार योजन प्रमाण है ॥१०८६॥ आचारवत्ति-जल, स्थल और ख अर्थात् आकाश में जो गमन करते हैं वे जलचर, स्थलचर और नभचर कहलाते हैं। गर्भ और उपपाद जन्म के अतिरिक्त अन्य योनि से उत्पन्न होनेवाले जीव अर्थात् अनेक पुद्गल परमाणुओं के मिल जाने पर जन्म लेनेवाले जीव संमर्छन कहलाते हैं। देव, मनुष्य और नारकियों से अतिरिक्त जीव तिर्यंच होते हैं। और जिनकी छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं हों वे अपर्याप्तक हैं। ये पर्याप्ति पूर्ण किये वगैर अन्तर्मुहूर्त में ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे इन जलचर अपर्याप्त, स्थलचर अपर्याप्त और नभचर अपर्याप्त संमूर्च्छन तियंचों की जघन्य देह-अवगाहना बारह अंगुल प्रमाण है । तथा जलचर-पर्याप्त संमळुन जीवों की उप्कृष्ट देह-अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण है। पुनरपि इनका आश्रय लेकर और गर्भजों का आश्रय लेकर उत्कृष्ट शरीर प्रमाण को कहते हैं गाथार्थ-जलचर, स्थलचर, गर्भज, अपर्याप्त जीव एवं नभचर, स्थलचर संमच्छिम पर्याप्तजीव तथा नभचर, गर्भज पर्याप्त-अपर्याप्त जीव ये उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्वप्रमाण देहवाले होते हैं।।१०८७॥ १. देहप्रमाणायोत्तरसूत्रमाह। २. क्रियापदमिदं क-पुस्तके नास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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