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________________ २३४] [ मूलाचा अट्ठारसजोयणिया –अष्टादशयोजनानि प्रमाणं येषां तेऽष्टादशयोजना:, लवणे--लवणसमुद्र, णवजोयणा-नवयोजनानि प्रमाणं येषां ते नवयोजनाः, गदिमुहेसु-नदीनां मुखानि नदीमुखानि तेषु नदीमुखेषु प्रदेशेषु गंगासिन्ध्वादीनां समुद्रेषु प्रवेशो नदीमुखम् । छत्तीसगा य-षड्भिरधिकानि त्रिंशत् प्रमाणं येषां ते षट्त्रिंशत्काः पत्रिंशद्योजनप्रमाणाः, कालोदहिम्मि-कालोदधौ, अट्ठारस-अष्टादशयोजनप्रमाणा यद्यप्यत्र योजनशब्दो न श्रूयते पूर्वोक्तसमासांतर्भूतस्तथापि द्रष्टव्योऽन्यस्याश्रुतत्वात् लुप्तनिर्दिष्टो वा, विमुहेसु-नदीमुखेषु । लवणसमुद्रे ऽष्टादशयोजनप्रमाणा मत्स्यास्तत्र च नदीमुखेषु च नवयोजनप्रमाणा मत्स्याः कालोदधौ पुनर्मत्स्याः षट्त्रिंशद्योजनप्रमाणास्तत्र च नदीमुखेषु अष्टादशयोजनप्रमाणाः। मत्स्यानामुपलक्षणमेतद् अन्येषामपि प्रमाणं द्रष्टव्यमिति ॥१०८४॥ स्वयंभूरमणे मत्स्याना मुत्कृष्टदेहप्रमाणं जघन्यदेहप्रमाणं च प्रतिपादयन्नुत्तरसूत्रमाह साहस्सिया दुमच्छा सयंभरमणल्लि पंचसदिया दु । देहस्स सव्वहस्सं कुंथुपमाणं जलचरेसु ॥१०८५॥ साहस्सिया दु-साहसिकास्तु सहस्र योजनानां प्रमाणं येषां ते साहस्रिकाः, अत्रापि योजनशब्दो द्रष्टव्यः, मच्छा-मत्स्याः सयंभरमणह्मि-स्वयंभूरमणसमुद्र, पंचसदिया-पंचशतिकाः पंच शतानि प्रमाणं येषां' योजनानां पंचशतिका नदीमुखेष्विति द्रष्टव्यमधिकारात् । उत्कृष्टेन स्वयंभूरमणसमुद्र मत्स्याः सहस्रयोजनप्रमाणा नदीमुखेषु पंचशतयोजनप्रमाणाः । देहस्स-देहस्य शरीरस्य, सव्वहस्सं-सर्वह्रस्वं सुष्ठ अल्पत्वं, कुंथुपमाणं-कुंथुप्रमाणं, जलचरेसु-जलचरेषु । सर्वजलचराणां मध्ये मत्स्यस्य देहप्रमाणं सर्वोत्कृष्टं योजनसहस्र सर्वजघन्यश्च कुंथुप्रमाणः केषांचिज्जलचराणां देह इति ॥१०५५।। आचारवृत्ति-लवण समुद्र में मत्स्य अठारह योजन की अवगाहना वाले हैं। तथा गंगा, सिन्धु आदि नदियो के प्रवेश स्थान में अर्थात् समुद्र के प्रारम्भ में मत्स्य नवयोजन लम्बे हैं। कालोदधि समुद्र में मत्स्य छत्तीस योजन के हैं और वहाँ भो समुद्र के प्रारम्भ में नदियों के प्रवेश स्थान में अठारह योजनवाले हैं। यद्यपि कारिका के उत्तरार्ध में 'योजन' शब्द नहीं है, फिर भी समझ लेना चाहिए क्योंकि अन्य माप का यहाँ प्रकरण नहीं है अथवा 'लुप्तनिर्दिष्ट' समझना। यहाँ मत्स्यों की यह अवगाहन कहो है जो उपलक्षण-मात्र है। अन्य जलचरों का भी प्रमाण समझ लेना चाहिए। स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों का उत्कृष्ट शरीर और जघन्य शरीर का प्रमाण कहते हुए अगला सूत्र कहते हैं गाथार्थ-स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य हज़ार योजनवाले हैं तथा प्रारम्भ में पाँच सौ योजन प्रमाण हैं । जलचरों में कुंथु का प्रमाण सबसे छोटा है ।।१०८५॥ प्राचारवृत्ति-स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य हज़ार योजन लम्बे हैं। प्रारम्भ में नदी प्रवेश के स्थान में मस्त्य पाँच सौ योजना लम्बे हैं। जलचरों में कुन्थु का शरीर सबसे छोटा होता है । अर्थात् सभी जलचरों में से मत्स्य शरीर का प्रमाण सर्वोत्कृष्ट-एक हज़ार योजन है और सर्व जघन्य शरीर किन्हीं जलचरों में कुथु का प्रमाण सबसे छोटा है। १. नदीमुखं क प्रतो नास्ति। २. क सर्वोत्कृष्टदेह। ३. येषां क प्रतौनास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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