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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ २३३ भवन्ति, पत्ता - प्रत्येकरसाः, एते चत्वारो वारुणीवरादयः समुद्रा भिन्नरसा भवन्तीति । कालो-कालः, पुक्खर -- पुष्करवरः, उदधी- समुद्रौ, सयंभुरमणो य - स्वयंभूरमणश्च उदयरसा - उदकरसा उदकं रसो येषां त उदकरसाः, कालोदधिपुष्करोदधी समुद्री स्वयंभू रमणश्चैते उदकरसाः । एतेभ्य पुनरन्ये क्षोद्ररसाः समुद्रा इति ॥ १०५२ ॥ अथ केषु समुद्रेषु जलचराः सन्ति केषु च न सन्तीत्याशंकायामाह - लवणे कालसमुद्द सयंभुरमणे य होंति मच्छा वु । अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा ॥ १०८३ ॥ लवणे --- लवणसमुद्रे, कालसमुद्दे - कालसमुद्र, सयं भुरमणे य-स्वयंभू रमणसमुद्रे चं, होंति मच्छाभवन्ति मत्स्याः, तुशब्दादन्ये जलचरा मत्स्यशब्दस्य चोपलक्षणत्वाद् उत्तरत्र मकरप्रतिषेधाच्च । अवसेसेसुअवशेषेषु एतेभ्योऽन्येषु समुद्द े सु–समुद्रेषु णत्थि न सन्ति न विद्यन्ते, मच्छा य-मत्स्याश्च, मयरा वामकरा वा चशब्दादन्येऽपि जलचरा न सन्त्युपलक्षणमात्रात्वद्वा प्रतिषेधस्य । लवणसमुद्र कालोदधौ स्वयंभूरमणसमुद्र े च मत्स्या मकरा अन्ये च जलचरा द्वीन्द्रियादयः पंचेन्द्रियपर्यन्ताः सन्ति, एतेभ्योऽन्येषु समुद्रेषु मत्स्या मकरा अन्ये च द्वीन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्ता जलचरा न सन्तीति ॥। १०८३ ॥ अथ किप्रमाणा जलचरा एतेष्वित्याशंकायामाह - Jain Education International अट्ठारसजोयणिया लवणे णवजोयणा नदिमुहेसु । छत्तीसगा य कालोदहिम्मि अट्ठारस नदिमुहेसु ॥ १०८४ ॥ है । इस तरह ये चारों समुद्र अपने-अपने नाम के समान वस्तु के रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श और स्वादवाले है । कालोदधि, पुडकर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र ये तीनों जल के समान ही जल वाले हैं। इन सात समुद्रों के अतिरिक्त, सभी समुद्र इक्षुरस के सदृशं मधुर और सुस्वादु रंस वाले हैं । किन समुद्रों में जलचर जीव हैं और किनमें नहीं हैं, सो ही बताते हैं गाथार्थ - लवण समुद्र कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य आदि जलचर जीव हैं । किन्तु शेष समुद्रों में मत्स्य मकर आदि नहीं हैं ।। १०८३ ॥ श्राचारवृत्ति - लवण समुद्र में, कालोदधि में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य होते हैं। तथा गाथा में 'तु' शब्द से अन्य भी जलचर - द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त होते हैं । चूंकि मत्स्य शब्द यहाँ उपलक्षण मात्र है और गाथा के उत्तरार्ध में 'मकर' का प्रतिषेध भी किया है। इन तीन के अतिरिक्त शेष समुद्रों में मत्स्य, मकर एवं 'च' शब्द से अन्य जलचर जीव भी नहीं हैं अर्थात् द्वन्द्र से लेकर पंचेन्द्रिय- पर्यन्त कोई भी जलचर जीव नहीं होते हैं । इन तीनों समुद्रों में जलचर जीव कितने बड़े हैं, सो ही बताते हैं गाथार्थ - लवण समुद्र में मत्स्य अठारह योजनवाले हैं । नदी के प्रवेश में नवयोजनवाले हैं । कालोदधि में छत्तीस योजन के हैं किन्तु प्रारम्भ में नदी के प्रवेश में अठारह योजन के हैं ।। १०८४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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