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________________ [ मूलाधारे जलरहित मध्य प्रदेशास्तेषु द्वीपेषु, दीवसरिसणामया -- द्वीपः सदृशानि समानानि नामानि येषां ते द्वीपसदृशनामान:, उबधी उदकानि धीयन्ते येषु त उदधयः समुद्राः । जम्बूद्वीपे लवणसमुद्रः, धातकीखण्डे च कालोदधिसमुद्रः शेषेषु पुनद्वपेषु ये समुद्रास्ते स्वकीयस्वकीयद्वीपनामसंज्ञका भवन्तीति ॥। १०८० ॥ २३९ एते समुद्रा लवणोदादयः किं समानरसा' इत्याशंकायामाह - पतेयरसा चत्तारि सायरा तिण्णि होंति उदयरसा । अवसेसा य समुद्दा खोद्दरसा होंति णायव्वा ॥१०८१ ॥ पसेयरसा -- प्रत्येकः पृथक् पृथग् रसः स्वादो येषां ते प्रत्येकरसा भिन्नस्वादाः, चत्तारि - चत्वारः, सायरा - सागराः समुद्राः, तिष्णि त्रयः, होंति - भवन्ति, उदयरसा —— उदकरसा उदकं रसो येषां ते उदकरसाः पानीयरसपूर्णाः । अवसेसा य-- अवशेषाश्चैतेभ्यो येऽन्ये, समुद्दा - समुद्राः, खोदरसा - क्षोद्ररसा: इक्षो रस इव रसो येषां त इक्षुरसा मधुरसस्वादुपानीयाः, होंति - भवन्ति, णायव्वा - ज्ञातव्याः । चत्वारः समुद्राः प्रत्येकरसाः त्रय उदकरसाः समुद्राः, शेषाः क्षोद्ररसा ज्ञातव्या भवन्तीति ।। १०८१ ॥ के प्रत्येकरसाः के चोदकरसा इत्याशंकायामाह - वारुणिवर खोरवरो घटवर लवणो य होंति पतेया । कालो पुक्खर उदघी सयंभुरमणो य उदयरसा ॥। १०८२ ॥ वारुणिवर - वारुणीवरः समुद्रो वारुणी मद्यविशेषस्तस्या रस इव रसो यस्य स वारुणीरसो वारुणीवरः, वीरवरो - क्षीरवरः क्षीरस्य रस इव रसो यस्य स क्षीररसः क्षीरवर:, घववर - घृतवरः घृतस्य रस इव रसो यस्य स धृतरस:, लवणो य - लवणश्च लवणस्य रस इव रसो यस्य स लवणरस लवणसमुद्रः, होंति- मध्य प्रदेश द्वीप कहलाता है और जो उदक को धारण करते हैं वे उदधि हैं। जम्बूद्वीप को वेष्टित कर लवणसमुद्र है, धातकीखण्ड को वेष्टित कर कालोदधि समुद्र है । पुनः शेष द्वीप के जो समुद्र हैं वे अपने-अपने द्वीप के नाम वाले होते हैं । ये लवणोद आदि समुद्र क्या समान रसवाले हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंगाथार्थ - -चार समुद्र पृथक्-पृथक् रसवाले हैं और तीन जलरस वाले हैं। शेष समुद्र मधुर रस वाले हैं ।। १०८१ ।। आचारवृत्ति - -चार समुद्र पृथक-पृथक रस (स्वाद) वाले हैं। तीन जलरूप रस से परिपूर्ण हैं और शेष समुद्र इक्षुरस के समान स्वादवाले हैं । कौन प्रत्येक रसवाले हैं और कौन उदक रसवाले हैं, सो ही बताते हैं गाथार्थ - वारुणीवर, क्षीरवर, घृतवर और लवण ये चार समुद्र उन्हीं - उन्हीं रसवाले हैं । कालोदधि, पुष्कर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र जल के सदृश रसवाले हैं । १०८२ ॥ Jain Education International प्राचारवृत्ति - वारुणी अर्थात् मद्यविशेष । मारुनीवर समुद्र का रस मद्यविशेष के समान है। क्षीर अर्थात् दूध । क्षीरवर समुद्र का जल दुग्ध के समान है । घृत अर्थात् घी । घृतवर समुद्र का जल घी के सदृश है । लवम अर्थात् नमक । लवण समुद्र का जल नमक के समान खारा १. सग कि समानरसा नेत्याह । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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