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[मूलाचारे
भुजगवरश्चतुर्दशो द्वीपः, कुसवरो- कुशवरः पंचदशो द्वीप:, कुंचवरदीवो - - क्रौंचवरद्वीपश्च षोडश इति । ।।१०७६-१७७७
एवं नामानि गृहीत्वा विष्कम्भप्रमाणमाह
एवं दीवसमुद्दा गुणगुणवित्थडा असंखेज्जा ।
एदे दु तिरियलोए सयंभुरमणोदह जाव ॥ १०७८॥
एवम् अनेन प्रकारेण, दीवसमुद्दा - द्वीपसमुद्राः, बुगुणद्गुण वित्थड - दुगुणो दुगुणो विस्तारो येषां ते द्विगुणद्विगुणविस्ताराः कियतः असंखेज्जा - असंख्याताः संख्याप्रमितिक्रान्ताः । जम्बूद्वीपविष्कम्भाल्लवणसमुद्रो द्विगुणविष्कम्भो लवणसमुद्राच्च धातकीखण्डद्वीपो द्विगुणविष्कम्भः । अनेन प्रकारेण द्वीपात्समुद्रो द्विगुणविस्तारः समुद्राच्च द्वीपः । अतः सर्वे द्वीपसमुद्रा द्विगुणद्विगुणविस्तारा असंख्याता भवन्ति । ननु समुद्रग्रहणं कुतो लब्धम् ? द्वीग्रहणात्, तदपि कुतः ? साहचर्यात्पर्वतनारदवत् । क्व व्यवस्थिता इत्याशंकायामाह - एदे दु तिरियलोएएते तु द्वीपसमुद्रास्तिर्यग्लोके रज्जुमात्रायामे कियद्दूरं ? सयंभुरमणोर्दाह जाव - - यावत्स्वयंभूरमणोदधिः । स्वयंभू रमणसमुद्रपर्यंन्ता असंख्याता द्वीपसमुद्रा द्विगुणद्विगुणविस्तारा द्रष्टव्या इति ॥ १०७८ ।।
असंख्याता इति तु न ज्ञायन्ते कियन्त इत्यतस्तन्निर्णयमाह -
जाव दिया उद्धारा श्रड्ढाइज्जाण सागरुवमाणं । तावदिया खलु रोमा हवंति दीवा समुद्दा य ॥ १०७६॥
द्वीप, तेरहवाँ रुचकवरद्वीप, चौदहवाँ भुजगवरद्वीप, पन्द्रहवाँ कुशवरद्वीप, और सोलहवाँ क्रौंचवरद्वीप - ये सोलह द्वीपों के नाम हैं ।
इस प्रकार नामों को कहकर इनका विस्तार बताते हैं-
गाथार्थ--इस प्रकार ये द्वीप - समुद्र तिर्यग्लोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त दुगुने - दुगुने विस्तारवाले असंख्यात हैं ।। १०७८ ॥
श्राचारवृत्ति - ये द्वीप समुद्र इस एक रज्जुप्रमाण विस्तारवाले तिर्यग्लोक में असंख्यात प्रमाण हैं जो कि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त दूने-दूने विस्तार वाले होते गये हैं । अर्थात् जम्बूद्वीप के विस्तार से लवण समुद्र का विस्तार दूना है, लवण समुद्र के विस्तार से धातकीखण्ड का दूना है । इसी प्रकार से द्वीप से समुद्र का विस्तार दूना है और समुद्र से द्वीप का विस्तार दूना है । इस तरह सभी द्वीप समुद्र दूने दूने विस्तारवाले होते हुए संख्या को उलंघन कर असंख्यात हो गये हैं । शंका-समुद्र का ग्रहण कैसे प्राप्त हुआ ? समाधान द्वीप के ग्रहण करने से समुद्र का ग्रहण हो जाता है । शंका- यह भी कैसे ? समाधान - साहचर्य से । जैसा कि पर्वत का ग्रहण करने से उसके सहचारी होने से नारद का ग्रहण हो जाता है ।
'असंख्यात' ऐसा कहने से यह नहीं मालूम हुआ कि किस असंख्य प्रमाण हैं । अतः उसके निर्णय के लिए कहते हैं
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गाथार्थ -ढाई सागरोपम में जितने उद्धार पल्य हैं उतने रोमखण्ड प्रमाण द्वीप और समुद्र हैं ।। १०७६ ॥
१. संख्यात प्रमाणमतिक्रान्ताः ग ।
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