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________________ २२४ ] [ मूलाचारे प्राधान्याद् देवानां कल्पवासिनां तावदुत्सेधमाह सोहम्मीसाणेसु य देवा खलु होंति सत्तरयणीओ। छच्चेव य रयणोओ सणक्कुमारे हि माहिंदे ॥१०६६॥ सोहम्मोसाणेसु य-सुधर्मा 'नाम्नी सभा तस्यां भवः सौधर्म इन्द्रस्तेन सहचरितं विमानं कल्पो वा, सौधर्मश्चैशानश्च सौधर्मशानो तयोः सौधर्मेशानयोः श्रेणिबद्धप्रकीर्णकसहितयोः, देवा-देवा इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशत्पारिषदात्मरक्षलोकपालनीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाः, खलु-स्फुटं, सत्तरयणीओसप्त हस्ताः छच्चेव-षडेव च, रयणीओ-रत्नयो हस्ताः, सणक्कुमारे-सनत्कुमारे च, माहिंदे-माहेन्द्रे । सौधर्मंशानयोः कल्पयोर्देवा इन्द्रादयः शरीरप्रमाणेन सप्तहस्ता भवन्ति, सनतत्कुमारमाहेन्द्रयोश्च कल्पयोश्च देवा इन्द्रादयः षडत्नयः प्रमाणेन भवन्तीति ॥१०६६॥ शेषकल्पेषु देवोत्सेधं प्रतिपादयन्नाह बभे य लंतवे वि य कप्पे खलु होंति पंच रयणीओ। चत्तारि य रयणीओ सुक्कसहस्सारकप्पेसु ॥१०६७॥ बंभे-ब्रह्मकल्पे, लंतवे विय- लान्तवकल्पे, कल्पशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । खल-स्फुटं व्यक्त सर्वमेतत, होंति-भवन्ति । पंचरयगीओ-पंच रत्नयः । देवा इत्यनुवर्तते । तेन सह संबन्धः सर्वत्र द्रष्टव्यः । चत्तारि य-चतस्रश्च, रयणीओ-रत्नयो हस्ताः, सुक्क--शुक्रकल्पे, सहस्सार-सहस्रारकल्पे, अत्रापि कल्पशब्दः प्रत्येमभिसंबध्यते । उपलक्षणमात्रमेतत्तेनान्येषां ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रशतारसहस्रारकल्पानां देवों में कल्पवासी देव प्रधान होने से पहले उनकी ऊँचाई कहते हैं गाथार्थ-सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देव सात हाथ ऊँचे हैं और सनत्कुमार तथा महेन्द्र स्वर्ग में छह हाथ प्रमाण होते हैं ॥१०६६॥ प्राचारवृत्ति-सुधर्मा नाम की सभा में जो हुआ है अर्थात् जो उसका अधिपति है वह इन्द्र 'सौधर्म' कहलाता है। उससे सहचारित विमान अथवा कल्पभी सौधर्मकहलाता है। ऐसे ही आगे के ईशान आदि इन्द्रों के नाम से ही स्वर्गों के नाम हैं। सौधर्म और ईशान स्वर्ग के इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक ये सभी देव सात हाथ प्रमाण शरीरवाले होते हैं। तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र आदि सभी देव छह हाथ प्रमाण शरीरवाले होते हैं। शेष कल्पों में देवों की ऊँचाई का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-ब्रह्म और लान्तव कल्प में पाँच हाथ तथा शुक्र और सहस्रार कल्प में चार हाथ प्रमाण ऊँचाई होती है ॥१०६७॥ आचारवत्ति - यहाँ पर कल्प शब्द ब्रह्म आदि प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए जैसे ब्रह्मकल्प, लान्तवकल्प, शुक्रकल्प और सहस्रारकल्प। यह उपलक्षणमात्र है। उससे अन्य स्वर्गों में भी ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पों को भी ग्रहण कर लेना १.क नाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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