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[ मूलाचारे शरीरविकरणसमर्थ विविधगुणद्धियुक्त वा शरीरं आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डः, देवाणं-देवानां, माणुसाणमनुष्याणां मनुष्यजातिकर्मोदयवतां, संठाणं-संस्थानं सर्वावयवसम्पूर्णता, सुहणाम- शुभं शोभनं नाम संज्ञानभावो वा यस्य तच्छुभनाम प्रशस्तनामकर्मोदयवत्, पसत्थगदी प्रशस्ता शोभना गतिर्गमनं यस्य सः प्रशस्तगतिः मदुमंथरविलासादिगुणसंयुक्त, सुस्सरवयणं-शोभन: स्वरो यस्य तत् सुस्वरवचनं, सुरूवं-सुरूपं शोभनं च रूपं यस्य तत् सुरूपं, चशब्देनान्यदपि गीतनृत्तादि गृह्यते यत एवं ततो यद्यपि केशनखादिरहितं तथापि न बीभत्सरूपं यतो देवानां वैक्रियिकं शरीरम्। संस्थानं पुनः किं विशिष्टम् ? शुभनाम प्रशस्तगति: सुस्वरवचनं सुरूपं मनुष्याणामिवास्य केशनखाद्याकारः सर्वोपि विद्यत एव सुवर्णशैलप्रतिमानमिवेति ॥१०५६।।
न केवलं देवानां वैक्रियिकं शरीरं किन्तु नारकाणामपि यद्येवं तदेव तावत्प्रतिपादनीयमित्याशंका प्रमाणपूर्वकं नारकदेहस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
पढमाए पृढवीए णेरइयाणं त होइ उस्सेहो।
सत्सधणु तिण्ण रयणी छच्चेव य अंगुला होति ॥१०५७॥ पढमाए- प्रथमायां रत्नप्रभाया, पुढवीए-पृथिव्यां, गेरइयाणं-नारकाणां, तुशब्दः स्वविशेषग्राहक: तेनान्यदपि द्वादशप्रस्ताराणां शरीरप्रमाणं वेदितव्यं, होव--भवति, उस्सेहो-उत्सेधः शरीरप्रमाणं,
वह अणिमा, महिमा आदि लक्षणवाली है। इस विक्रिया में जो होता है अथवा वह विक्रिया ही जिसका प्रयोजन है उसे वैक्रियिक शरीर कहते हैं। यह सूक्ष्म आदि रूप से नाना शरीरों के बनाने में समर्थ तथा विविध प्रकार के गुण और ऋद्धियों से युक्त होता है । अथवा आत्मा की प्रवृत्ति से उपचित पुद्गल पिण्ड का नाम वैक्रियिकशरीर है। देवों का यह शरीर मनुष्य जाति नामकर्मोदय से सहित मनुष्य जीवों के आकार के सदृश रहता है। यह प्रशस्तनामकर्मोदय से निर्मित होने से शुभनामयुक्त होता है, मृदु-मन्थर-विलास आदि से संयुक्त प्रशस्त गतिवाला है, शोभन स्वर से युक्त है एवं शोभन रूप से मनोहर भी रहता है। 'च' शब्द से—गति, नृत्य आदि क्रियाओं से सहित रहता है । यद्यपि इस शरीर में केश, नखादि नहीं हैं फिर भी उनका रूप बीभत्स नहीं है, क्योंकि देवों का यह वैक्रियिक शरीर शुभनाम, प्रशस्तगति, सुस्वरवचन और सुन्दररूप युक्त है तथा मनुष्यों के समान इसमें केश, नख आदि के आकार सभी विद्यमान रहते हैं जैसे कि सुवर्ण व पाषाण की प्रतिमा में सर्व आकार बनाये जाने पर वह अतिशय सुन्दर दिखती है उसी प्रकार से इनके शरीर में भी अतिशय सुन्दरता पायी जाती है।
केवल देवों के ही वैक्रियिक शरीर होते हैं ऐसा नहीं है किन्तु नारकियों के भी हैं, यदि ऐसी बात है तो उसका भी प्रतिपादन करना चाहिए ? ऐसी आशंका होने पर नारकियों के शरीर का प्रमाण बताते हुए उनके देह का वर्णन करते हैं
गाथार्थ-प्रथम पृथिवी के नारकियों की ऊँचाई सात धनुष, तीन अरनि और छह अंगुल प्रमाण होती है ।।१०५७॥
आचारवृत्ति-रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी में नारकियों के शरीर का प्रमाण सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल होता है । यह सामान्य कथन है, क्योंकि यह वहाँ को उत्कृष्ट ऊँचाई है। गाथा में 'तु' शब्द अपने विशेष भेदों को ग्रहण करनेवाला है, इससे अन्य बारह प्रस्तारों में शरीर की ऊँचाई का प्रमाण जानना चाहिए । अर्थात् प्रथम नरक में तेरह प्रस्तार
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