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________________ eutefuकार: ] [ २१३ प्रच्छादिका त्वक्, वस - वसा मांसास्थिगत स्निग्धरसः, रुहिर - रुधिरं रक्त, मुक्त - मूत्रं प्रस्रवणं, पुरिसंपुरीषं वाशब्दोऽन्येषां समुच्चयार्थः शुक्रप्रस्वेदत्वगादीनां । णेव - नैव पूर्वोक्तानि सर्वाणि नैव भवन्ति, अट्ठीअस्थीनि संहननकारणानि, नैव सिरा - सिराजालानि । देवाण - देवानां शरीरसंस्थाने, केशनखश्मश्रुलोमचर्मवसारुधिरमूत्रपुरीषशुक्रप्रस्वेदानि नैव भवन्ति, अस्थिसिराश्च नैव भवन्तीति ॥ १०५४ । । शरीरगतपुद्गलातिशयं प्रतिपादयन् देहमाह वरवण्णगंधरसफासादिव्वबहुपोग्गलहं णिम्माणं । हदि देवो 'देहं सुचरिदकम् माणुभावेण ॥१०५५॥ वराः श्रेष्ठा वर्णरसगंधस्पर्शा येषां ते वरवर्णगन्धरसस्पर्शास्ते च ते दिव्यबहुपुद्गलाश्च तैर्वर्णगन्धरसस्पर्शदिव्यानन्तपुद्गलैः सर्वगुणविशिष्टवं क्रियिकशरीरवर्गणागतानन्तपरमाणुभिः, निम्माणं - निर्मित सर्वावयवरचितं गेहदि- गृह्णाति स्वीकरोति, देवो देवः, 'देह' - शरीरं सुचरिदकम्माणुभावेण -- स्वेन चरितमजितं तच्च तत्कर्म च सुचरितकर्म तस्यानुभावो माहात्म्यं तेन स्वचरितकर्मानुभावेन पूर्वार्जितशुभकर्मप्रभावेन । देवो वरवर्णगन्धरसस्पर्शदिव्यबहुपुद्गल निर्मितं शरीरं गृह्णाति ॥ १०५५॥ अथ देवानां त्रयाणां शरीराणां मध्ये कतमद्भवतीत्यारे कायामाह - वेव्वियं शरीरं देवाणं माणूसाण संठाणं । सुहणाम पत्थगदी सुस्सरवयणं सुरूवं च ॥ १०५६॥ वे उब्वियं - अणिमादिलक्षणा विक्रिया तस्यां भवं सैव प्रयोजनं वा वैक्रियिकं सूक्ष्मादिभावेन नाना नहीं होते हैं । उनके दिव्य शरीर में चर्म - मांसादि को प्रच्छादित करनेवाला, वसा - मांस और हड्डियों में होनेवाला चिकना रस, रुधिर - ख़ ून, मूत्र, विष्ठा तथा 'वा' शब्द से वीर्य, पसीना आदि कुछ भी नहीं होते हैं । तथा हड्डी और शिरासमूह भी नहीं होते हैं । अर्थात् देवों के शरीर में सात प्रकार की धातुएँ और उपधातुएँ कुछ भी नहीं होती हैं । शरीर में होनेवाले पुद्गलों की विशेषता कहते हुए शरीर का वर्णन करते हैं गाथार्थ - देव अपने द्वारा आचरित शुभकर्म के प्रभाव से श्रेष्ठ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शमय बहुत सी दिव्य पुद्गलवर्गणाओं से निर्मित शरीर को ग्रहण करते हैं ।। १०५५ ।। आचारवृत्ति - उत्तम वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनन्त दिव्य परमाणुओं, जो कि सर्व गुणों से विशिष्ट वैक्रियिक शरीर के योग्य हैं ऐसे पुद्गलपरमाणुओं से जिनके शरीर के सभी अवयव बनते हैं वे देव अपने द्वारा संचित शुभकर्म के माहात्म्य से ऐसे दिव्य वैक्रियिक शरीर को ग्रहण करते हैं । तीन शरीरों में से देवों के कौन-सा शरीर होता है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं गाथा - मनुष्य के आकार के समान देवों के वैक्रियिक शरीर, शुभनाम, प्रशस्त गमन, सुस्वरवचन और सुरूप होते हैं ।। १०५६॥ आचारवृत्ति - विविध प्रकार की क्रिया अर्थात् शरीरादि को बना लेना विक्रिया है । १-२ क वोदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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