SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२] । मूलाचारे कणयमिव णिरुवलेवा णिम्मलगत्ता सुयंधणीसासा। अणादिवरचाहरूवा समचउरसोरुसंठाणं ॥१०५३॥ अणाविपर-आदिबलत्वं परो वृद्धत्वम् आदिश्च परश्चादिपरो न विद्येते आदिपरी बालवृद्धपर्यायो यस्य तस्य तदनादिपरं चारु शोभनं सर्वजननयनकान्तं रूपं शरीरावयवरमणीयता अनादिपरं चारुरूपं येषां ते अनादिपरचाररूपा यावदायुःशरीरस्थिरयौवना इत्यर्थः अतिशयितस्थिरचारुरूपा वा, समचउरसोरु-समचतुरस्र उरु महत् पूज्यगुण संठाणं-संस्थानं शरीराकारः समचतुरस्र उरु संस्थानं येषां ते समचतुरस्रोरुसंस्थाना यथाप्रदेशमन्यूनाधिकावयवसम्पूर्ण प्रमाणाः, कणयमिव कनकमिव, णिवलेवा-निरुपलेपा उपलेपान्मलान्निर्गता निरुपलेपाः, णिम्मलगत्ता-निर्मलं गात्रं येषां ते निर्मलगात्राः, सुयंधणीसासा-सुगन्धः सर्वघ्राणेन्द्रियाल्हादनकरो निःश्वास उछ्वासो येषां ते सुगन्धनिःश्वासाः । कनकमिव निर्लेपा निर्मलगात्राः सुगन्धनिःश्वासा अनादिपरचाररूपाः समचतुरस्रोरुसंस्थाना देवा भवन्तीति संबन्धः ॥१०५३॥ कि देवसंस्थाने सप्त धातवो भवन्तीत्यारेकायां परिहारमाह केसणहमंसुलोमा चम्मवसारुहिरमुत्तपुरिसं वा। वट्ठी णेव सिरा देवाण सरीरसंठाणे ॥१०५४॥ केस-केशा मस्तक नयननासिकाकर्णकक्षगुह्यादिप्रदेशवालाः, णह-नखाः हस्तपादांगुल्यप्रोद्भवाः, मंस-श्मश्रूणि कूर्चवालाः लोम-लोमानि सर्वशरीरोद्भवसूक्ष्मवालाः, धम्म-चर्म मांसादि गाथार्थ-ये देव स्वर्ण के समान, उपलेपरहित, मलमूत्ररहित शरीर वाले, सुगन्धित उच्छ्वास युक्त, बाल्य और वृद्धत्वरहित, सुन्दर रूपसहित और समचतुरस्र संस्थानवाले होते हैं ॥१०५३॥ आचारवृत्ति-आदि अर्थात् बाल्यावस्था, पर अर्थात् वृद्धत्व ये आदिऔर पर अवस्थाएँ जिनके नहीं होती हैं अर्थात् जो बाल और वृद्ध पर्याय से रहित आयुपर्यन्त नित्य ही यौवन पर्याय से समन्वित, सर्वजन-नयन-मनोहारी रूपसौन्दर्य से युक्त होते हैं, जिनका शरीर समचतुरस्र संस्थान अर्थात् न्यून और अधिक प्रदेशों से रहित प्रमाणबद्ध अवयवों की पूर्णता युक्त है, जैसे सुवर्ण मल रहित शुद्ध होता है वैसे ही जिनका शरीर मलमूत्र पसीना आदि से रहित होने से निरुपलेप है, तथा जिनका निर्मल थरीर धातु, उपधातु से रहित है, जिनका निश्वास सभी की घ्राणेन्द्रिय को आह्लादित करनेवाला, सुगन्धित है ऐसे दिव्य शरीर के धारक देव होते हैं। क्या देव के शरीर में सात धातुएं होती हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-देवों के शरीर में केश, नख, मूंछ, रोम, चर्म, वसा, रुधिर, मूत्र और विष्ठा नहीं हैं तथा हड्डी और सिराजाल भी नहीं होते ॥१०५४॥ आचारवत्ति-देवों के शिर, भोंह, नेत्र, नाक, कान, काँख और गुह्य प्रदेश आदि स्थानों में बाल नहीं होते हैं। हाथ और पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में नख नहीं होते हैं । श्मश्रुमूंछ-दाढ़ी के बाल नहीं होते हैं एवं सारे शरीर में उत्पन्न होनेवाले सूक्ष्म बाल अर्थात् रोम भी १. क सम्पूर्णद्रव्य-। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy