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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ २११ यौवनः सर्वाभरणभूषितः देवो देवः, दिव्वेण - दिव्येन सुष्ठु शोभनेन, रूवेण रूपेण शरीराकारवर्णादिना । यस्मिन् विमाने शिलायां महार्हे शयनीये देवो जातस्तस्मिन्नेवानुसमयं पर्याप्तो दिव्येन रूपेण भवतीति ॥ १०५१ ॥ देहसूत्रं विवृण्वन् संबन्धनैव देव देहं प्रतिपादयन्नाह देहस्य - देहस्य च शरीरस्य, णिव्वत्ती निवं तिनिष्पत्ति:, भिण्णमुहुत्त े --भिन्न मुहूर्तेन किचिदूनघटिकाद्वयेन, होवि - भवति, देवाणं- देवानां भवनवासिकादीनां न केवलं षट्पर्याप्तयो भिन्नमुहूर्त्तेन निष्पत्ति गच्छन्ति किं तु देहस्यापि च निष्पत्तिः सर्वकार्यकरणक्षमा भिन्नमुहूर्त्तेनैव भवतीति । तथा न केवलं देहस्योत्पत्तिभिन्नमुहूर्तेन किं तु सव्यंगभूसणगुणं - सर्वाणि च तान्यंगानि सर्वांगानि करचरणशिरोग्रीवादीनि तानि भूपयति इति सर्वागभूषणः सर्वागभूषणो गुणविशेषो यस्य तत्सर्वागभूषणगुणं निरवशेषशरीरावयवालंकारकरणं, जोठवणं - योवनं प्रथमवयः परमरमणीयावस्था सर्वालंकारसमन्विता अतिशयमतिशोभनं सर्वजननयनाह्लादक, होवि भवति, देहम्मि- देहे शरीरे । देवानां योवनमपि शोभनं सर्वागभूषणगुणं तेनैव भिन्नमुहूर्त्तेन भवतीति ।। १०५२।। पुनरपि देवव्या वर्णनद्वारेण देहमाह देहस्य front froणमुहुत्त े ण होइ देवाणं । वंगभूसणगुणं जोव्वणमवि होदि देहम्मि ।। १०५२ ।। जाते हैं। जिस विमान की उपपादशिला की महाशय्या पर वे देव उत्पन्न होते है उसी शय्या पर समय-समय में दिव्य रूप से परिपूर्ण हो जाते हैं । अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त में ही वे देव दिव्य आहार आदि वर्गणाओं को ग्रहण करते हुए दिव्यरूप और यौवन से परिपूर्ण हो जाते हैं । अद्वितीय देहसूत्र का वर्णन करते हुए सम्बन्ध से ही देव के देह का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ - देवों के देह की पूर्णता अन्तर्मुहूर्त में हो जाती है । देह में सर्वागभूषण, गुण और यौवन भी उत्पन्न हो जाते हैं ।। ०५२ ।। आचारवृत्ति - भवनवासी आदि देवों के कुछ कम दो घड़ी के काल से छहों पर्याप्तियाँ ही पूर्ण हों मात्र इतना ही नहीं, किन्तु सर्वकार्य करने में समर्थ शरीर भी पूर्ण बन जाता है । केवल मात्र शरीर की रचना ही अन्तर्मुहूर्त काल में हो ऐसा नहीं हैं, किन्तु शरीरहाथ-पैर, मस्तक, कण्ठ आदि को विभूषित करनेवाले भूषण अर्थात् शरीर के सभी अवयव, उनके अलंकार और नाना गुण भी पूर्ण हो जाते हैं तथा वह शरीर नवयौवन से सम्पन्न हो जाता है जो कि परम रमणीय, सर्वालंकार से समन्वित, अतिशय सुन्दर और सर्वजनों को आह्लादित करनेवाला होता है। तात्पर्य यही है कि उस अन्तर्मुहुर्त के भीतर की छहों पर्याप्तियों से पूर्ण सुन्दर दिव्य शरीर भूषणों और गुणों से अलंकृत नवयोवन भी हो जाता है । पुनरपि देवों के वर्णन द्वारा देह का वर्णन करते हैं १. क देहानाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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