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________________ २०६ ] [ मूलाधारे ARE NOT कुलं च कुलानि जातिभेदाः । अप्पबहुगो च-- अल्पबहुत्वं च । पयडि -- प्रकृतिर्ज्ञानावरणादिस्वरूपेण पुद्गलपरिणामः । ठिदि स्थितिः पुद्गलानां कर्मस्वरूप मजहतामवस्थितिकालः, अणुभाग - अनुभागः कर्मणां रसविशेषः । पदेस – प्रदेशः कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं, बंधो बन्धः परवशीकरणं जीव' पुद्गलप्रदेशानुप्रदेशेन संश्लेषशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धोऽनुभागबन्धः प्रदेशबन्धश्चेति । च शब्दः समुच्चयार्थः । सुत्तपवा - सूत्रपदानि एतानि सूत्रपदानि, अथवैते 'सूत्रपदा एतानि विशतिसूत्राणि षोडशसूत्राणि वा द्रष्टव्यानि भवन्तीति । यदि कायसंस्थानमिन्द्रियसंस्थानं च द्वे सूत्रे प्रकृत्यादिभेदेन च बन्धस्य चत्वारि सूत्राणि तदा विशतिसूत्राणां (णि) अथ कायेन्द्रियसंस्थानमेकं सूत्रं चतुर्धा बन्धोप्येकं सूत्रं तदा षोडश सूत्राणीति ।। १०४५-१०४६।। प्रथम सूत्रसूचितपर्याप्तिसंख्यानामनिर्देशे नाह आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाण भासाए । होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणक्खादा ||१०४७॥ आहारे य- आहारस्याहारविषये वा कर्म नोकर्मस्वरूपेण पुद्गलानामादानमाहारस्तृप्तिकारणपुद्गलप्रचयो वा, सरीरे—शरीरस्य' शरीरे वोदारिकादिस्वरूपेण पुद्गलपरिणामः शरीरम् । तह–तथा । स्थानों को स्थान शब्द से लिया है। कुल - जाति के भेद को कुल कहते हैं । अल्पबहुत्व - कम और अधिक का नाम अल्पबहुत्व है । प्रकृति - ज्ञानावरण आदि रूप से पुद्गल का परिणत होना प्रकृति है । स्थिति - कर्मस्वरूप को न छोड़ते हुए पुद्गलों के रहने का काल स्थिति है । अनुभाग - कर्मों का रसविशेष अनुभाग है । प्रदेश – कर्मभाव से परिणत पुद्गलस्कन्धों को परमाणु के परिणाम से निश्चित करना प्रदेश है । जो जीव को परवश करता है. वह बन्ध है अर्थात् जीव और कर्म-प्रदेशों का परस्पर में अनुप्रवेश रूप से संश्लिष्ट हो जाना बन्ध है । यह 'बन्ध' शब्द प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों के साथ लगाना चाहिए, ऐसा यहाँ कहा है। 1 इस प्रकार से ये बीस सूत्र पद हैं जो कि इस अधिकार में कहे जायेंगे । अर्थात् यदि कायसंस्थान और इन्द्रिय-संस्थान इनको दो मानकर तथा बन्ध के चारों भेदों को पृथक् करें तब तो बीस सूत्रपद होते हैं और यदि काय-इन्द्रिय संस्थान को एकसूत्र तथा चारों बन्धों को भी बन्ध सामान्य से एक सूत्र गिनें तो सोलह सूत्र होते हैं, ऐसा समझना । प्रथम सूत्र से सूचित पर्याप्ति की संख्या और नाम का निर्देश करते हैं- गाथार्थ - आहार की, शरीर की, इन्द्रिय की, श्वासोच्छवास की, भाषा की और मन पर्याप्तियाँ क्रम से होती हैं जो कि जिनेन्द्रदेव द्वारा कही गयी हैं । ५०४७ ॥ Jain Education International आचारवृत्ति- आहार की पूर्णता का कारण अथवा आहार के विषय में कर्म और नोकर्म रूप से परिणत हुए पुद्गलों को ग्रहण करना आहार है अथवा तृप्ति के लिए कारणभूत पुद्गल समूह का नाम आहार है । शरीर की पूर्णता में कारण अथवा शरीर के विषय में औदारिक १. क जीवपुद्गल प्रदेशान्यान्यप्रदेशानुप्रदेशेन संश्लेषः । २. क सूत्रपाता। ३. शरीर विषयं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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