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________________ पर्याप्त्यधिकारः ] [ २०७ इदिय-इन्द्रियस्येन्द्रियविषये वा पुद्गलस्वरूपेण परिणामः [इन्द्रियविपये वा], आणपाण-आनप्राणयोरानप्राणविषये वोच्छ्वासनिश्वासवायुस्वरूपेण पुद्गलप्रचय आनप्राणनामा। भासाए-भाषाया भाषाविषये व। शब्दरूपेण पूदगलपरिणामो भाषा। होति-भवन्ति । मणो विय-मनसोऽपि च मनोविषये वा चित्तोत्पत्तिनिमित्तपरमाणनिचयो मनः ।कमसो-क्रमशः क्रमेण यथानुक्रमेणागमन्यायेन वा । पज्जती-पर्याप्तयः संपूर्णताहेतवः । जिणक्खादा-जिनख्याताः सर्वज्ञप्रतिपादिताः । एताः पर्याप्तयः प्रत्येकमभिसंबध्यन्ते । आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिः, इन्द्रियपर्याप्तिः, आनप्राणपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनःपर्याप्तिरेता: षट् पर्याप्तयो जिनख्याता भवन्तीति। पर्याप्तीनां संख्या षडेव नाधिका इति नामनिर्देशेनैव लक्षणं व्याख्यातं द्रष्टव्यं यतः, आहारपर्याप्तिरिति किमुक्त भवति येन कारणेन च त्रिशरीरयोग्यं भुक्तमाहारं खलरसभागं कृत्वा समर्थो भवति जीवस्तस्य कारणस्य निर्व तिः सम्पूर्णता आहारपर्याप्तिरित्युच्यते। तथा शरीरपर्याप्तिरिति किमुक्त भवति येन कारणेन शरीरप्रायोग्यानि पूदगलद्रव्याणि गृहीत्वौदारिकर्व क्रियिकाहारकशरीरस्वरूपेण परिणमय्य समर्थो भवति तस्य कारणस्य निर्व त्तिः सम्पूर्णता शरीरपर्याप्तिरित्युच्यते । तथेन्द्रि यपर्याप्तिरिति किमुक्त भवति येन कारणेनैकेन्द्रियस्य द्वीन्द्रियस्य त्रयाणामिन्द्रियाणां चतुर्णां पञ्चेन्द्रियाणां प्रायोग्यानि पुद्गलद्रपाणि गृहीत्वात्मात्मविषये ज्ञातुं समयों भवति तस्य कारणस्य निर्व तिः परिपूर्णता इन्द्रियपर्याप्तिरित्युच्यते। तथाऽनप्राणपर्याप्तिरिति किमुक्त भवति येन कारणेनानप्राणप्रायोग्यानि पुद्गलद्रव्याण्यवलंब्यानप्राणपर्याप्त्या निःसृत्य आदि रूप से पुद्गलों का परिणत होना शरीर है । इन्द्रियों की पूर्णता का कारण अथवा इन्द्रिय के विषय में पुद्गलस्वरूप से परिणमन करना इन्द्रिय हैं। श्वासोच्छ्वास की पूर्णता का कारण अथवा श्वासोच्छ्वास के विषय में उच्छ्वास-निःश्वासरूपवायु के स्वरूप से पुद्गलसमह को ग्रहण करना उच्छवास-निःश्वास है। भाषा की पूर्णता का कारण अथवा भाषा के विषय में शब्दरूप से पुद्गलों का परिणत होना भाषा है । मन को पूर्णता का कारण, अथवा मन के विषय में चित्त की उत्पत्ति के निमित परमाणु समूह का नाम मन है। पूर्णता के कारण का नाम पर्याप्ति है। प्रत्येक के साथ पर्याप्ति शब्द को लगा लेना । ये पर्याप्तियाँ जिनेन्द्रदेव द्वारा कही गयी हैं। अर्थात् आहारपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति आनप्राणपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति। ये पर्याप्तियाँ छह हो है, अधिक नहीं हैं। इस प्रकार नामों के निर्देश से ही इनका लक्षण कह दिया गया है, ऐसा समझना। इनका क्या लक्षण कहा गया है ? उसे ही कहते हैं आहारपर्याप्ति-जिस कारण से यह जीव तीन शरीर के योग्य ग्रहण की गयी आहार वर्गणाओं को खल-रस-अस्थि-चर्मादिरूप और रक्त-वीर्यादिरूप भाग से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की सम्पूर्णता का होना आहारपर्याप्ति है। - शरीरपर्याप्ति--जिस कारण से जीव शरीर के योग्य पुद्गलवर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर के स्वरूप से परिणमन कराने में समर्थ होता है उस कारण की सम्पूर्णता का होना शरीर पर्याप्ति है। इन्द्रियपर्याप्ति-जिस कारण से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय और पंचेन्द्रियों के योग्य पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण करके यह आत्मा अपने विषयों को जानने में समर्थ होता है उस कारण की पूर्णता का नाम इन्द्रियपर्याप्ति है। आनप्राणपर्याप्ति-जिस कारण के द्वारा यह जीव श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गल राज्यों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास रूप रचना करने में समर्थ होता है उस कारण की सम्पूर्णता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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