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________________ पर्याप्त्यधिकारा] [२०५ प्रतिज्ञार्थं निर्वहन्नाचार्यः पर्याप्त्युपलक्षितस्याधिकारस्य 'संग्रहस्तबकगाथाद्वयमाह पज्जत्ती देहो वि य संठाणं कायइंदियाणं च । जोणी आउ पमाणं जोगो वेदो य लेस पविचारो॥१०४५॥ उववादो उव्वट्टण' ठाणं च कुलं च अप्पबहुलो' य। पयडिटिदिअणुभागप्पदेसबंधो य सुत्तपदा ॥१०४६॥ पज्जत्ती-पर्याप्तय आहारादिकारणनिष्पत्तयः । देहो वि य --देहोऽपि चोदारिकर्वक्रियिकाहारकवर्गणागतपुदगलपिंडः करचरणशिरोग्रीवाद्यवयवैः परिणतो वा अपि चान्यदपि । संठाणं-संस्थानमवयवसन्निदेशविशेषः । केषामिति चेत कायेन्द्रियाणां च कायानां च पृथिवीकायादिकानां श्रोत्रादीन्द्रियाणां च कायानां संस्थानमिन्द्रियाणां च । जोणी-योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि । आउ-आयुर्नरकादिगतिस्थितिकारणपुद्गलप्रचयः।पमाणं--प्रमाणमूत्सेधायामविस्ताराणामियत्ता, चायूषोऽन्येषां च देहादीनां वेदितव्यम् । जोगो-योगः कायवाङ मनस्कर्म । वेदो य–वेदश्च मोहनीय कर्मविशेषः स्त्रीपुरुषाद्यभिलाषहेतुः । लेस-लेश्या कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिः । पविचारो-प्रवीचारः स्पर्शनेन्द्रियाद्यनुरागसेवा, उववादो--उपपाद: अन्यस्मादागत्योत्पत्तिः। उव्वट्टण-उद्वर्त्तनं अन्यस्मादन्यत्रोत्पत्तिः । ठाणं-स्थानं जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानानि । प्रतिज्ञा के अर्थ का निर्वाह करते हुए आचार्यदेव पर्याप्ति से उपलक्षित अधिकार की संग्रहसूचक दो गाथाओं को कहते हैं --- गाथार्थ-पर्याप्ति, देह, काय-संस्थान, इन्द्रिय-संस्थान, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, उद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बीस सूत्रपद हैं ॥१०४५-१०४६।। आचारवृत्ति-पर्याप्ति--आहार आदि कारणों की पूर्णता का होना पर्याप्ति है। देहऔदारिक, वैक्रियिक और आहार वर्गणारूप से आये हुए पुद्गलपिण्ड का नाम देह है अथवा हस्त पाद. शिर, ग्रीवा आदि अवयवों से परिणत हुए पुद्गलपिण्ड को देह कहते हैं । संस्थान-अवयवों की रचनाविशेष। यह पृथ्वीकाय आदि और कर्णेन्द्रिय आदि का होता है । और काय-संस्थान और इन्द्रिय-संस्थान से यह दो भेद रूप है। योनि-जीवों की उत्पत्ति के स्थान का नाम योनि है। आयु-नरक आदि गतियों में स्थिति के लिए कारणभूत पुद्गल-समूह को आयु कहते हैं । प्रमाण-ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के माप को प्रमाण कहते हैं। यह प्रमाण आयु और अन्य शरीर आदि का समझना । योनि-काय, वचन और मन के कर्म का नाम योग है। वेद-मोहनीय कर्म के उदयविशेष से स्त्री-पुरुष आदि की अभिलाषा में हेतु वेद कहलाता है। लेश्याकषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है। प्रवीचार-स्पर्शन इन्द्रियादि से अनुराग पर्वक कामसेवन करना प्रवीचार है । उपपाद-अन्यस्थान से आकर उत्पन्न होना उपपाद है। उद्वर्तन यहाँ से जाकर अन्यत्र जन्म लेना उद्वर्तन है। स्थान-जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा १. क संग्रह सूत्रसूचकमाथाद्वयमाह। २. क उव्वट्टनमो। ३. क अप्पबहुगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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