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________________ २०० ] [ मूलाचारे विशेषार्थ-शील के अठारह हजार भेद तीन अन्य प्रकारों से भी किये जासकते हैं : (१) विषयाभिलाषा आदि १० अर्थात् विषयाभिलाषा, वस्तिमोक्ष, प्रणीतरससेवन, संसक्तद्रव्यसेवन, शरीरांगोपांगावलोकन, प्रेमि-सत्कार-पुरस्कार, शरीरसंस्कार, अतीतभोगस्मरण, अनागतभोगाकांक्षा और इष्टविषयसेवन। चिन्ता आदि १० अर्थात् चिन्ता, दर्शनेच्छा, दीर्घनिःश्वास, ज्वर, दाह, आहार-अरुचि, मूर्छा, उन्माद, जीवन-सन्देह और मरण । इन्द्रिय ५, योग ३, कृत-कारितअनुमोदना ३, जागत और स्वप्न ये २, और चेतन-अचेतन ये २ इन सबको गुणित करने पर अठारह हज़ार (१०x१०४५४३४३४२४२=१८०००) हो जाते हैं। इन दोषों से रहित १८००० शील होते हैं। (२) तीन प्रकार की स्त्री. (देवी, मानुषी, तिरश्ची) ३, योग ३, कृत-कारित-अनुमोदना ३, संज्ञाएँ ४, इन्द्रिय १० (भावेन्द्रिय ५, द्रव्येन्द्रिय ५) तथा कषाय १६-इन सबको गुणा करने पर १७२८० भेद (३४३४३४४४१०x१६) होते हैं। इनमें अचेतन स्त्री सम्बन्धी ७२० भेद जोड़ दें, यथा, अचेतन स्त्री (काष्ठ, पाषाण, चित्र) ३, योग (मन और काय) २, कृतादि ३ और कषाय ४ तथा इन्द्रिय-भेद १० से गुणा करने पर (३४२४३४४४१०)७२० होते हैं । इस प्रकार १७२८०+७२०=१८००० भेद हुए। (३) स्त्री ४, योग ३, कृतादि ३, इन्द्रिय ५, शृगार रस के भेद १०, काय-चेष्टा के भेद १० इनके परस्पर गुणित होने से (४४३४३४५४१०x१०) १८००० भेद होते हैं। इन दोषों से रहित १८००० शील होते हैं । विषमप्रस्तारापेक्षया यन्त्रमिदम् मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति मनःकरण वाक्करण कायकरण आहार | भय मैथुन | परिग्रह | २७ १८ स्पर्शन | रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र - १०८ - १४४ ७२ पृथ्वी अग्नि ३६० वायु प्रत्येक वन. अनंत वन. द्वीन्द्रिय | त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय । ५४० । ७२० । ९०० १०८० १२६० १४४० | १६२० क्षमा | मार्दव | आर्जव | शौच । सत्य , संयम तप | त्याग आकिंचन्य। ब्रह्मचर्य १८०० ३६०० | ५४०० । ७२०० ६००० १०८००१२६०० १४४०० | १६२०० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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