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शीलगुणाधिकारः ]
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ततोऽष्टरूपाणि निराकरणीयानि ततो द्वादशरूपाणि भवन्ति पंचभिर्गुणितानि षष्टिरूपाणि भवन्ति द्वे रूपेऽनंकिते ते निराकृत्याष्टापं वाशद्रपाणि भवन्ति तानि चतुर्भी रूपैर्गुणितानि द्वात्रिंशदधिके द्वे शते भवतः, अनंकितं न किचिद्विद्यते ततस्तानि लब्धरूपाणि त्रिभिर्गुणितानि षण्णवत्यधिकानि षट्शतानि भवन्ति अनकित द्वे रूप ते निराकृत्य चतुर्णवत्यधिकानि षट्शतानि भवन्ति ततस्तानि त्रिभी रूपैर्गुणितानि द्वे सहस्र द्वयशीत्यधिके भवतस्ततो द्वे रूपेऽनंकिते निराकृत्य शेषाण्युच्चारणारूपाणि भवन्त्येवं सर्वत्र शीलेषु गुणेषु च द्रष्टव्यमिति ।। १०४२ ॥
चाहिए (१x१० ) इस प्रकार गुणने पर १० आये अतः आलाप में मार्दवधर्म है तथा उसके आगे के आठ भेद अनंकित हैं, उन्हें इस लब्ध संख्या से घटा देना चाहिए, तब दो '२' अंक बचा । इसे भी 'दशकाय' से गुणा करने से २० अंक ( २x१०) हुए। इनमें 'जलकाय' के आगे के आठ अंक, जो अनंकित हैं, घटा दें तब बारह शेष रहे (२० २०- ८ = १२) । पुनः इन्हें पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर साठ ( १२५ - ६० ) आये, इनमें से भी ' घ्राणेन्द्रिय' से ऊपर का
इन्द्र अनंकित हैं । उन्हें घटा दें तब अट्ठावन (६० - २) होते हैं । इन्हें भी चार संज्ञाओ से गुणा करने पर दो सौ बत्तीस ( ५८x४ = २३२) हुए । यह परिग्रह संज्ञा अन्तिम होने से अनंकित है अतः कुछ नहीं घटा । पुनः इस संख्या में तीन करण से गुणा करने पर छह सौ छ्यानवे (२३२×३=६६६ ) हुए । यहाँ पर 'मनःकरण' से आगे के दो रूप अनंकित होने से उन्हें घटाने पर ६६४ हुए । उन्हें आगे के तीन योगों से गुणा करने पर दो हजार ब्यासी (६ε४X३ =२०८२) हुए। इसमें से 'मनोगुप्ति' के आगे के अनंकित दो को घटाने से दो हजार अस्सी होते हैं । अतः पूर्वं प्रश्न के उत्तर में इसे २०८० वाँ भंग कहेंगे । इस प्रकार सर्वत्र शील और गुणों में समझना चाहिए ।
* अष्टादशशील सहस्राणां समप्रस्तारापेक्षया यंत्रमिदम् -
शौच सत्य
४
५
क्षमा
१
पृथ्वी
स्पर्शन
०
०
मनः क०
०
मार्दव आर्जव
२
३
आहार भय
अप् तेज
१०
२०
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रसना घ्राण
१००
२००
मैथुन
५०० १०००
वाक्क० कायक०
२००० ४०००
मनोगु० || वाग्गु०
०
कायगु० ६००० १२०००
वायु
३०
चक्षु
३००
परिग्रह
१५००
प्रत्येक
४०
श्रोत
४००
संयम
६
तप
७
त्याग
साधारण द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय
५०
६०
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७०
आकिंचन्य ब्रह्मचर्यं १०
६
चतु०
८०
( अगले पृष्ठ पर भी देखें)
पंचेन्द्रिय
६०
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