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[ मूलाचारे
भिर्भागे हृते रूपं लब्धं द्वे रूपे च शेषभूते तत्रैकवारं भ्रमित्वाक्षो द्वितीय रूपे व्यवस्थितस्ततो रूपे रूपं प्रक्षिप्य क्षान्त्यादिभिर्भागे न हृते किचिल्लब्धं द्वितीय रूपे चाक्षः स्थितः, एव सर्वत्र नष्टोऽक्ष आनयितव्योऽव्यामोहेन यथा शीलेष्वेवं गुणेष्वपि द्रष्टव्य इति ।।१०४।।। पुनरक्षद्वारेण रूपाणि नष्टान्यानयन्नाह
संठाविऊण रूवं उवरीदो संगुणित्त सगमाणे।
अवणिज्ज अणंकिदयं कुज्जा पढमति याचेव ॥१०४२॥ संठाविऊण-संस्थाप्य सम्यक् स्थापयित्वा, रूवं-रूपं,उवरीदो-उपरित आरभ्य, संगुणित्त - संगुणय, सगमाणे-स्वकप्रमाणः, अणिज्ज--अपनीय निराकरणीयं, अणंकिदयं-अनंकितं रूपं, कुज्जाकुर्यात, पढमंति याचेव-प्रथममारभ्यांतकं यावद् रूपं संस्थाप्य दशभी रूपैर्गुणनीयम् । अष्टरूपाण्यनंकितानि परिहरणीयानि ततो द्वे रूपे शेष भूते ततो दशभी रूपैर्गुणयितव्ये ततो दशभी रूपैर्गुणिते विंशतिरूपाणि भवन्ति
स्थित रहा अर्थात् अक्ष दो होने से वह 'मार्दव-धर्म-संयुक्त' है ऐसा समझना। इस प्रकार से सर्वत्र ही व्यामोह छोड़कर नष्ट अक्ष निकालना चाहिए । जैसे शीलों में यह विधि है ऐसे ही गुणों में भी समझना चाहिए।
विशेषार्थ-संख्या को रखकर भेद निकालना नष्ट कहलाता है और भेद को रखकर संख्या निकालने को समुद्दिष्ट कहते हैं । यहाँ पर नष्ट को निकालने की विधि बतलायी है । जिस किसी ने शील का जो भी भंग पूछा हो, उतनी संख्या रखकर उसमें क्रम से प्रथम शील के प्रमाण का भाग दें। भागं देने पर जो शेष रहे, उसे अक्षस्थान समझकर जो लब्ध आवे उसमें एक मिलाकर दूसरे शील के प्रमाण से भाग देना चाहिए । और भाग देने पर जो शेष रहे उसे अक्षस्थान समझना चाहिए। किन्तु शेष स्थान में यदि शून्य हो तो अन्त का अक्षस्थान समझना चाहिए और उसमें एक नहीं मिलाना चाहिए। इसी का उदाहरण २०८० संख्या रखकर दिया गया है जो कि इस प्रकार आया है-मनोगुप्तिधारक, मनःकरणमुक्त, परिग्रहसंज्ञा-विरत, घ्राणेन्द्रियसंवृत, जलकायसंयमरत और मार्दवधर्मयुक्त धीर मुनि होते हैं।
पुनः अक्ष के द्वारा नष्ट रूप को निकालने की विधि कहते हैं
गाथार्थ-एक अंक को स्थापित करके, ऊपर के अपने शील प्रमाण से गुणा करके अनंकित को घटा देना चाहिए । प्रथम से लेकर अन्तपर्यन्त आने तक यह विधि करे॥१०४२॥
आचारवृत्ति-सम्यक् प्रकार से एक अंक स्थापित करके ऊपर से आरम्भ करके, अपने शील प्रमाणों से गुणा कर, उसमें से अनंकित संख्या को घटा देना चाहिए। इस प्रकार प्रथम से आरम्भ करके अन्त तक उतने-उतने अंकों को स्थापित करके यह विधि करना चाहिए। अर्थात्, जैसे ऊपर संख्या रखकर आलाप निकाला है, ऐसे ही यहाँ पर आलापों का उच्चारण करके संख्या निकालनी है, अतः ऊपर का ही उच्चारण लेकर किसी ने पूछा कि-'मनोगुप्तिधारक, मनःकरणमुक्त, परिग्रहसंज्ञाविरत, घ्राणेन्द्रियसंवृत, जलकायसंयमरत और मार्दवधर्मयुक्त' शील का भंग कौन-सा है तो उसे ही निकालने की विधि बतलाते हैं।
अंक १ रखकर उसे ऊपर के शील के भेदों से अर्थात् दश धर्म से गुणा करना
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