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[मूलाचारे पढम सीलपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च ।
पिडं पडि एक्केक्कं णिक्खित्ते होइ पत्थारो ॥१०३८॥ पढम-प्रथमं मनोवाक्कायत्रिकं । सीलपमाणं-शीलप्रमाणं अष्टादशशीलसहस्रमात्रम् । कमेणक्रमेण। णिक्खिविय-निक्षिप्य प्रस्तीर्य मनोवाक्काय मनोवाक्काय इत्येवं तावदेक निक्षेपणीयं यावदष्टादशसहस्राणि पूर्णानि भवन्ति । ततः उवरिमाणं च--उपरिस्थितानां च करणादीनामष्टादशसहस्रमात्रो निक्षेपः कर्त्तव्यस्तद्यथा---अष्टादशसहस्रमात्राणां योगानां निक्षिप्तानामुपरि मनःकरणं मनःकरणं मनःकरणं वाक्करणं वाक्करणं वाक्करणं कायकरणं कायकरणं कायकरणं एवमेकैकं त्रीन् त्रीन् वारान् कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावदष्टादशसहस्राणि पूर्णानि । तत उपरि आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः पृथक् पृथक् एकैका संज्ञा नव नववारान् कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावदष्टादशसहस्राणि' पूर्णानि । तत उपरि स्पर्शनरसनघ्राणचक्ष:श्रोत्राणीन्द्रियाणि पञ्चकै षटत्रिशद्वारान् षटत्रिंशद्वारान् कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावदष्टादशसहस्राणि सम्पूर्णानि भवन्ति । तत उपरि पथिवीकायिकाकायिकवायुकायिक प्रत्येककायिकानन्तकायिकद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया दर्शककमशीतिशतवारमशीतिशतवारं कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावदष्टादशसहस्राणि पूर्णानि भवन्ति। तत उपरिक्षान्तिमार्दवार्जवलाघवतपःसंयमाकिंवन्यब्रह्मचर्यसत्यत्यागा दशै कैकं अष्टादशशतान्यष्टादशशतानि कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावदष्टादशसहस्राणि पूर्णानि भवन्ति । तत एवं पिडं प्रति एकके निक्षिप्ते समःप्रस्तारो भवति । मनोवाक्काय एकः पिण्डः त्रीणि करणान्यपरः पिडरिकभावेन तथा संज्ञा नव नव भूत्वा परः पिण्ड:
गाथार्थ-प्रथम शील के प्रमाण को क्रम से निक्षिप्त करके पुनः ऊपर में स्थित शील के पिण्ड के प्रति एक-एक को निक्षिप्त करने पर प्रस्तार होता है ।।१०३८।।
प्राचारवृत्ति-पहले मन-वचन-काय इन तीनों के पिंड अर्थात् समूह को अठारह हज़ार शील प्रमाण अर्थात् उतनो बार क्रम से फैला करके अर्थात् मन वचन-काय, मन-वचन काय, इस प्रकार से अठारह हजार शील के पूर्ण होने तक इन एक-एक का निक्षेपण करना चाहिए। तथा निक्षिप्त किये हुए इन अठारह हज़ार प्रमाण बार इन योगों के ऊपर मनःकरण, मनःकरण, मन:करण वाक्करण, वाक्करण, वाक्करण कायकरण, कायकरण, कायकरण इस प्रकार से एक-एक करण को तीन-तीन बार करके तब तक फैलाना चाहिए जब तक अठारह हज़ार पूर्ण होते हैं। इसके ऊपर आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चारों संज्ञाओं में से एक-एक को पृथक् पृथक् नवनव बार करके तब तक फैलाना चाहिए जब तक अठारह हज़ार पूर्ण होते हैं। इसके ऊपर स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों में से एक-एक को छत्तीस-छतीस बार तब तक विरलित करना चाहिए जब तक अठारह हजार भेद सम्पर्ण होते हैं। इसके ऊपर पथिकीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक प्रत्येककायिक, अनन्तकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन दश में प्रत्येक को एक सौ अस्सी, एक सौ अस्सी करके तब तक विरलन करना चाहिए कि जब तक अठारह हज़ार पूर्ण होते हैं। इसके ऊपर क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग इन दश में से एक-एक को अठारह सौ-अठारह सौ करके तब तक फैलाना चाहिए कि जब तक अठारह हज़ार पूर्ण होते हैं। इस प्रकार से पिण्ड के प्रति एक-एक का निक्षेपण करने पर सम प्रस्तार होता है। १. सम्पूर्णानि भवन्ति ।
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