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________________ शीलगुणाधिकारः [ १९१ सीलगुणाणं'-शीलगुणानां । संखा-संख्या प्रमाणम् । शीलानां गुणानां च, पत्यारो-प्रस्तारः । शीलानां गुणानां च, अक्खसंकमो-भक्षसंक्रमश्चैव । तथा शीलानां गुणानां च, णट्ठ-नष्टता । उद्दिष्ट्र-- उद्दिष्टता च, उच्चारणा दृष्टा अक्षा नष्टास्तेषामक्षाणामुच्चारणावशेनोत्पादनं नष्टमित्युच्यते, अक्षा दृष्टा उच्चारणा नष्टा अक्षवशेन तासामुद्दिष्टमित्युच्यते । पंच वि वत्थूणि णेयाणि-एवं पंचापि वस्तूनि ज्ञातव्यानि भवन्ति । एवं शीलानां गुणानां च पंच विकल्पा ज्ञातव्या भवन्तीति ॥१०३६॥ संख्यानयनाय तावदाह सम्वेपि पुश्वभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेक्केसु । मेलंतेत्तिय कमसो गुणिदे उप्पज्जदे संखा ॥१०३७॥ ___ शोलानां गुणानां च सर्वानपि पूर्वभंगान् पूर्वविकल्पानुपरिभगेषु उपरिस्थितविकल्पेषु मेलयित्वा एकमेकं क्रमशो गुणयित्वा वा संख्या समुत्पादनीया । अथवा सर्वेषु पूर्वभंगेष उपरिभंगेषु च पृथक् पृथक् मिलितेषु संख्योत्पद्यते, अथवा सर्वेषु पूर्वभंगेषु उपरिभंगेषु च परस्परं गुणितेषु संख्योत्पद्यते । एकविंशतिश्चतुभिर्गुणनीया पुनः शतेन पुनरपि दशभिः पुनरपि दशभिः पुनरपि दशभिर्गुणिते च चतुरशीतिलक्षा मण्णा उत्पन्द्यत इति । एवं शीलानामपि द्रष्टव्यमिति ॥१०३७।। प्रस्तारस्योत्पादनार्थमाह-- प्राचारवृत्ति-शील और गुण की संख्या अर्थात् प्रमाण को कहना, शील और गुणों का प्रस्तार कहना, शील और गुणों के अक्षसंक्रम कहना, शील और गुणों का नष्ट कहना तथा शील और गुणों को उद्दिष्ट कहना ऐसे पाँच प्रकार से शील और गुणों के भेदों को समझना चाहिए । अलापों के भेदों को संख्या कहते हैं । संख्या के रखने या निकालने के क्रम को प्रस्तार कहते हैं। एक भेद से दूसरे भेद पर पहुँचने के क्रम को अक्षसंक्रम कहते हैं । संख्या को रखकर भेद को निकालना नष्ट है एवं भेद को रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। संख्या को निकालने की विधि कहते हैं गाथार्थ-पूर्व के सभी भंगों को आगे के भंगों में मिलाकर एक-एक को क्रम से गुणित करने से संख्या उत्पन्न होती है ।।१०३७।। आचारवत्ति-शील और गुणों के सभी पूर्व भंगों को ऊपर के भंगों में मिलाकर एकएक को क्रम से गुणित करने से संख्या उत्पन्न होती है। अथवा सभी पूर्व के भेद ऊपर के भंगों में पृथक्-पृथक् मिलाने पर संख्या उत्पन्न होती है। या पूर्व-पूर्व के भेदों को आगे-आगे के साथ परस्पर गुणा कर देने से संख्या कहलाती है। जैसे इक्कीस को चार से गुणा करें, पुनः उन्हें सौ से, पुनः दश से, पुनः दश से तथा पुनरपि दश से गुणा करने पर चौरासी लाख गुण उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही शीलों को भी समझना चाहिए। प्रस्तार की उत्पत्ति कहते हैं १. क शीलानां गुणानां च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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