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२९.]
[ मूलाचार पुढवीए पुढवी पुण आरंभसुसंजदे धीरे-पृथिव्याः पृथिवीकायिकैः पृथिव्याः पृथिवीकायिकानां पुनरारम्भो विराधनं तस्मिन् सुसंयतो यत्नपरस्तस्य तस्मिन्वा पृथिव्या पृथिवीपुनरारंभसुसंयतस्य पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकानां योऽयं पुनरारंभस्तस्मिन् सुसंयते वा धीरे धीरस्य वा साधोः। इत्थीसंसग्गविजुवे-स्त्रीसंसर्गवियुक्त ' स्त्रीजनसंसर्गविमुक्तस्य वा। आकंपियदोसकरणउम्मुक्के-आकम्पितदोषस्य यत्करणं तेनोन्मुक्तस्योन्मुक्ते वा। आलोयणसोधिजदे-आलोचनशुद्धियुक्ते आलोचनशुद्धियुक्तस्य वा,आदिगुणो-आदिगुणःप्रथमो गुणः संजातः । एवं, सेसया-शेषाश्च गुणाः । णेया-ज्ञातव्या उत्पादनीया इति । हिंसाद्यकविंशति संस्थाप्य तत ऊर्ध्वं अतिक्रमणादयश्चत्वारः संस्थापनीयाः पुनस्तत ऊध्वं पृथिव्यादिशतं स्थापनीयं तत ऊवं दश विराधना: स्त्रीसंसर्गादयो व्यवस्थाप्यास्तत उध्वं आकंपितादयो दश दोषाः स्थापनीयाः पुनस्तत ऊध्वं आलोचनादयो दश शुद्धयः स्थापनीयास्तत एवमुच्चारणं कर्तव्यं-धीरे मुनी प्राणातिपातविरते पुनरप्यतिक्रमणदोषकरणोन्मुक्ते पुनरपि पथिव्या पृथिवीपुनरारंभसुसंयते पुनरपि स्त्रीसंसर्गवियुक्ते पुनरप्याकंपितदोषकरणोन्मुक्ते पुनरप्यालोचनशुद्धियुक्ते आदिगुणो भवति । ततो मृषावादविरतेऽतिक्रमणदोषकरणोन्मुक्ते पुनरप्यालोचनशुद्धियुक्ते आदिगुणो भवति । ततो मृषावादविरतेऽतिक्रमणदोषकरणोन्मुक्त एवं शेषाणामप्युच्चार्य वाच्यो द्वितीयगुणस्ततोऽदत्तादान विरचित्ते, [विरहिते] एवं शेषेष्वप्युच्चारितेषु तृतीयो गुणाः, एवं तावदुच्चार्य यावच्चतुरशीतिमक्षा गुणानां . संपूर्णा उत्पन्ना भवन्तीति ।।१०३४-१०३५॥ शीलानां गुणानां च पंच विकल्पान् प्रतिपादयन्नाह
सीलगुणाणं संखा पत्थारो अक्खसंकमो चेव । णढें तह उद्दिळं पंच वि वत्थूणि णेयाणि ॥१०३६॥
स्थापना करना चाहिए। पुनः इस प्रकार से उच्चारण करना चाहिए–'प्राणी हिंसा से विरत, अतिक्रमण दोषकरण से उन्मुक्त, पृथिवी और पृथिवीकायिक के पुनः आरम्भ दोष से रहित, स्त्री संसर्ग से वियुक्त, आकम्पित दोष से मुक्त और आलोचना-शुद्धि से युक्त धीर मुनि के गुण का यह प्रथम भंग होता है । इसके अनन्तर मृषावाद से विरत, अतिक्रमणदोष करने से उन्मुक्त, पथिवी और पथिवीकायिक के आरम्भ से विरक्त, स्त्रीसंसर्ग से रहित, आकम्पित दोष से मुक्त और आलोचना शुद्धि से संयुक्त धीर मुनि के यह गुण का दूसरा भंग होता है । ऐसे ही अदत्तादान से रहित, अतिक्रमण दोष करने से मुक्त, पृथिवी और पृथिवीकायिक के आरम्भ से रहित, स्त्रीसंसर्ग से वियुक्त, आकम्पित दोष से रहित और आलोचना शुद्धि से विमुक्त मुनि के गुणों का यह तीसरा भंग हुआ। इस प्रकार से तब तक उच्चारण करना चाहिए कि जब तक सम्पर्ण चौरासी लाख गुणों की पूर्णता नहीं हो जाती।
अब शील और गुणों के पाँच विकल्पों को कहते हैं___ गाथार्थ-शील और गुणों के संख्या,प्रस्तार, अक्षसंक्रम,नष्ट और उद्दिष्ट ये पाँच वस्तुअधिकार जानना चाहिए ॥१०३६॥
१. क स्त्रीजनसंपर्कविप्रमुक्तस्य ।
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