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शीलगुणाधिकारः ]
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तथेन्द्रियाणि षद्भूत्वा परः पिण्डस्तथा पृथिव्यादयो दश अशीतिशतानि कृत्वा पर: पिण्डस्तथा क्षान्त्यादयो दशाष्टादशशतान्यष्टादशशतानि भूत्वा परः पिण्डः, एवं पिण्डं प्रति पिण्डं प्रति एकैके निक्षिप्ते समप्रस्तारो भवति इति । तथा प्राणातिपाताद्येकविंशतिः पुनः पुनस्तावत् स्थाप्या यावच्चतुरशीतिलक्षप्रमाणं पूर्ण भवति, तत उपर्यतिक्रमव्यतिक्रमातीचारानाचाराः प्रत्येकमेकविंशतिप्रमाणं कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावच्चतुरशीतिलक्षप्रमाणं सम्पूर्ण स्यात्, तत उपरि पृथिव्यादिविराधनाविकल्पः शतमात्रः प्रत्येकं चतुरशीतिप्रमाणं कृत्वा तावत् स्थाप्यं यावच्चतुरशीतिलक्षमात्रं, तत उपरि स्त्रीसंसर्गादिविराधना दश प्रत्येकं चतुरशीतिशतानि चतुरशीतिशतानि कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावच्तुरशीतिलक्षप्रमाणं सम्पूर्ण, चतुरशीतिसहस्राणि तत उपरि आकम्पितादयो दोषा दश प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्राणि कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावच्चतुरशीतिलक्षमात्रं स्यात्तत उपरि आलोचनादिशुद्धयो दश प्रत्येकमष्टलक्षाधिकचत्वारिंशत्सहस्राणि अष्ट लक्षाधिकचत्वारिंशत्सहस्राणि कृत्वा तावत्प्रस्तरणीयं यावच्चतुरशीतिलक्ष मात्रं सम्पूर्णः स्यात्ततश्चतुरशीतिलक्ष गुणगमननिमित्तः समः प्रस्तारः स्यादिति ॥१०३८ ॥
मन-वचन-काय एक पिण्ड है । तीन करण यह त्रिकभाव अर्थात् तीन-तीन बार से एक पिण्ड है । संज्ञाएँ नव-नव होकर एक अन्य पिण्ड हैं । इन्द्रियाँ छत्तीस - छत्तीस होकर एक अन्य पिण्ड हो जाती हैं । दश पृथिवी आदि में एक सौ अस्सी - एक सौ अस्सी होकर एक पिण्ड हो जाते हैं । तथा क्षमा आदि अठारह सौ अठारह सौ होकर अन्य पिण्ड हो जाते हैं । इस तरह पिण्डपिण्ड के प्रति एक-एक का निक्षेपण करने पर समप्रस्तार होता है । यह अठारह हज़ार भेद रूप शील का प्रस्तार हुआ। अब गुणों का प्रस्तार बताते हैं
प्राणिहिंसा आदि इक्कीस को पुनः पुनः रखकर तब तक स्थापित करना चाहिए कि जब तक चौरासी लाख प्रमाण पूर्ण होते हैं। उसके ऊपर अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतीचार और अनाचार - प्रत्येक को इक्कीस - इक्कीस बार करके तब तक फैलाना चाहिए जब तक चौरासी लाख प्रमाण सम्पूर्ण होते हैं । उसके ऊपर पृथिवी आदि विराधना के सौ भेदों को, प्रत्येक को चौरासीचौरासी प्रमाण करके तब तक स्थापित करना चाहिए कि जब तक चौरासी लाख होते हैं । इसके ऊपर स्त्रीसंसर्ग आदि विराधनाओं में से प्रत्येक को चौरासी सौ-चौरासी सौ करके तब तक विर
न करना चाहिए कि जब तक चौरासी लाख पूर्ण होते हैं । इसके ऊपर आकम्पित आदि दश दोषों को प्रत्येक को चौरासी हजार चौरासी हज़ार करके तब तक फैलाना चाहिए कि जब तक चौरासी लाख प्रमाण न हो जाएँ। इसके ऊपर आलोचना आदि दश प्रायश्चित भेदों को, प्रत्येक को आठ लाख चालीस हजार आठ लाख चालीस हज़ार करके तब तक विरलन विधि करना चाहिए कि जब तक चौरासी लाख प्रमाण सम्पूर्ण न हो जावें । इस प्रकार से चौरासी लाख गुणों को प्राप्त करने में निमित्त यह समप्रस्तार होता है ।
विशेषार्थ - समप्रस्तार को समझने की सरल विधि यह भी है : यथा - प्रथम योग नामक शील का प्रमाण ३ है, उसका विरलन कर क्रम से १ १ १ इस तरह निक्षेपण करना । ३३३ इसके ऊपर करण शील के प्रमाण ३ को प्रत्येक एक के ऊपर इस तरह निक्षेपण करना । ११४ ऐसा करने के अनन्तर परस्पर में इन करणों को जोड़ देने पर ६ होते हैं । इन को भी पूर्व की तरह विरलन कर एक-एक करके 8 जगह रखना तथा प्रत्येक एक के ऊपर आगे के संज्ञा शील
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