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________________ शीलगुणाधिकारः] [ १८७ आकपिय-आकम्पितदोषो भक्तपानोपकरणादिनाऽऽचार्यमाकम्प्यात्मीयं कृत्वा यो दोषमालोचयति तस्याकंपितदोषो भवति । अणुमाणिय-अनुमानितं शरीराहारतुच्छबलदर्शनेन दीनवचनेनाचार्यमनुमान्यात्मनि करुणापरमाचायं कृत्वा यो दोषमात्मीयं निवेदयति तस्य द्वितीयोऽनुमानितदोषः । जं विट-यद दष्टं अन्यर्यदवलोकितं दोषजातं तदालोचयत्यदष्टमवगहयति यस्तस्य ततीयो दष्ट नामालोचनादोषः । बादरं च-स्थूलं च व्रतेष्वहिंसादिकेषु य उत्पद्यते दोषस्तमालोचयति सूक्ष्म नालोचयति यस्तस्य चतुर्थों बादरनामालोचनादोषः स्यात् । सुहुमं च-सूक्ष्मं च साहस्तपरामर्शादिकं सूक्ष्मदोषं प्रतिपादयति महाव्रतादिभंग स्थूलं तु नाचष्टे यस्तस्य पंचमं सूक्ष्मं नामालोचनदोषजातं भवेत्। छण्णं-प्रच्छन्नं व्याजेन दोषकथनं कृत्वा स्वत: प्रायश्चित्तं य करोति तस्य षष्ठं प्रच्छन्नं नामालोचनदोषजातं भवति । सहाकूलियं-- शब्दाकुलितं पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकादिप्रतिक्रमणकाले बहुजनशब्दसमाकुले आत्मीयापराधं निवेदयति तस्य सप्तमं शब्दाकूलं नामालोचनादोषजातम् । बहुजणं-बहुजनं एकस्मै आचार्यायात्मदोषनिवेदनं कृत्वा आचारवृत्ति-मुनि आचार्य के पास में अपने व्रतों के दोषों की आलोचना करते हैं, उसमें होनेवाले दश दोषों का स्वरूप कहते हैं आकम्पित--भोजन, पान, उपकरण आदि द्वारा आचार्य में अनुकम्पा उत्पन्न करके अर्थात् आचार्य को अपना बना कर जो मुनि अपने दोषों की आलोचना करते हैं, उनके आकम्पित नाम का दोष होता है। अनुमानित-'मेरा शरीर दुर्बल है, मेरा आहार अल्प है' इत्यादि प्रकार के शरीर, आहार आदि की दुर्बलता को सूचित करनेवाले दीन वचनों से आचार्य को अपनी स्थिति का अनुमान कराकर अर्थात् अपने प्रति आचार्य में करुणाभाव जाग्रत करके जो अपने दोषों को निवेदित करते हैं उनके यह अनुमानित नाम का दोष होता है। दृष्ट-अन्य जनों ने जिन दोषों को देख लिया है उनकी जो आलोचना कर देते हैं तथा नहीं देखे गये दोषों को छिपा लेते हैं, उनके दृष्ट नाम का तीसरा दोष होता है। बादर--अहिंसा आदि महाव्रतों में जो स्थूल दोष हुए हैं उनकी तो जो आलोचना कर देते हैं किन्तु सूक्ष्म दोषों की आलोचना नहीं करते हैं उनके बादर नाम का चौथा दोष होता है। सूक्ष्म--जो मुनि 'मैंने गीले हाथ से वस्तु का स्पर्श किया है' इत्यादि रूप सूक्ष्म दोषों को तो कह देते हैं, किन्तु महाव्रत आदि के भंगरूप स्थूल दोषों को नहीं कहते हैं उनके सूक्ष्म नाम का पाँचवाँ दोष होता है। छन्न-बहाने से चुपचाप ही, दोषों का कथन करके जो स्वतः प्रायश्चित कर लेते हैं अर्थात् अमुक दोष होने पर क्या प्रायश्चित होता है ? ऐसा पूछने पर यदि गुरु ने बता दिया तो उसे आप स्वयं कर लेते हैं किन्तु 'मेरे द्वारा ऐसा दोष हुआ है' यह बात गुप्त ही रखते हैं, प्रकट नहीं होने देते, उनके छन्न नाम का छठा दोष होता है। शब्दाकुलित-पाक्षिक, चातुर्मासिक या सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण के काल में बहुतजनों के शब्दों के कोलाहल में जो अपना अपराध निवेदित कर देते हैं अर्थात् 'गुरु ने ठीक से कुछ सुना, कुछ नहीं सुना' ऐसे प्रसंग में जो आलोचना करते हैं उनके शब्दाकुलित नाम का दोष होता है। बहुजन—एक आचार्य के पास में अपने दोषों को कहकर, उनसे प्रायश्चित लेकर, उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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