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________________ १८८] [ मूलाचारे प्रायश्चित्तं प्रगृह्य पुनरश्रद्दधानोऽपरस्मै आचार्याय निवेदयति यस्तस्य बहजनं नामाष्टममालोचनादोषजातं स्यात् । अव्वत्त-अव्यक्तः प्रायश्चित्ताद्य कुशलो यस्तस्यामीयं दोषं कथयति यो लघत्रायश्चित्तनिमित्तं तस्याव्यक्तनाम नवममालोचनादोषजातं भवेत् । तस्सेवी-तत्सेवी य आत्मना दोषः सम्पूर्णस्तस्य यो महाप्रायश्चित्तभयादात्मीयं दोष प्रकटयति तस्य तत्सेवी नामा दशम आलोचनादोषो भवेत् । एवमेतैर्दशभिश्चतुरशीतिसहस्राणि गुणितान्यष्टलक्षाभ्यधिकानि चत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्तीति ॥१०३२॥ आलोचनादिप्रायश्त्तिानां स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-- आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तधा विउस्सग्गो। तव छेदो मूलं पि य परिहारो चेव सद्दहणा ॥१०३३॥ आलोयण-आलोचनं दशदोषविजितं गुरवे प्रमादनिवेदनमालोचनं । पडिकमणं-प्रतिक्रमणं व्रतातीचारनिहरण । उभय-उभयं आलोचनप्रतिक्रमणे संसर्गदोषे सति विशोधनात्तदुभयम् । विवेगो-विवेकः संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः । तधा-तथा । विउस्सग्गो-व्यूत्सर्गः कायोत्सर्गादिकरणं । तव-' पर श्रद्धान न रखते हुए जो पुनः अन्य आचार्य के पास आलोचना करते हैं उनके बहुजन नाम का आठवाँ दोष होता है। अव्यक्त-जो आचार्य प्रायश्चित आदि देने में अकुशल हैं वे अव्यक्त कहलाते हैं । उनके पास जो अपने दोष कहते हैं इसलिए कि 'ये हमें हल्काप्रायश्चित्त देंगे', तो उनके यह अव्यक्त नाम का नवम आलोचना दोष होता है। तत्सेवी-अपने सदृश दोषों से परिपूर्ण आचार्य के पास जो महाप्रायश्चित्त के भय से अपने दोषों को प्रकट करते हैं उनके तत्सेवी नाम का यह दशम आलोचना दोष होता है। इन दश आलोचना-दोषों से पूर्वोक्त चौरासी हजार को गुणित करने से आठ लाख चालीस हजार (८४०००४ १०=८४००००) हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के आलोचना आदि दश भेदों का स्वरुप कहते हैं___ गाथार्थ-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये प्रायश्चित के दश भेद हैं ॥१०३३॥ आचारवृत्ति-जिसके द्वारा दोषों का शोधन होता है उसका नाम प्रायश्चित है। उसके दश भेद हैं आलोचना- गुरु के पास में अपने प्रमाद से हुए दोषों का दशदोष रहित निवेदन करना आलोचना है। प्रतिक्रमण-व्रतों में लगे हुए अतीचारों को दूर करना प्रतिक्रमण है। उभय-आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा दोषों का विशोधन करना उभय नाम का प्रायश्चित है। विवेक-मिले हुए अन्न, पान और उपकरण आदि को अलग करना विवेक नाम का प्रायश्चित है। व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग आदि से दोषों का शोधन करना व्युत्सर्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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