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[ मूलाचारे रसभोजनं अतीव गुद्ध्या पञ्चेन्द्रियदर्पकराहारग्रहणम् । गंधमल्लसंठप्पं-गंध आर्द्रमहिषीयक्षकर्दमादिको माल्यं मालतीचंपकादिकुसुमादिकं ताभ्यां संस्पर्शो गन्धमाल्यसंस्पर्शः सुगंधद्रव्यैः सुगंधपुष्पैश्च शरीरसंस्करणम् । सयणासण-शयनं तूलिकादिपर्यकस्पर्श आसनं मृदुलोहासनादिकं शयनं चासनं च शयनासने मृदुशय्यामृतासनगृद्धिः । भूसणयं-भूषणानि शरीरमंडनादीनि मुकुटकटकादीनि शरीरशोभा विषयाकांक्षा वा पञ्चैतानि । छट्ठ पुणषष्ठं पुनः । गीयवाइयं-गीतं षड्जादिकं वादित्रं ततविततघनसुषिरादिकं करवादनं च, गीतं च वादित्रं च गीतवादित्रं 'रागादिकांक्षया नृत्तगेयाभिलाषकरणम् । अत्थस्स संपओगो-अर्थस्य संप्रयोगः सुवर्णादिद्रव्यसंपर्कः । कुसीलसंसग्गि-कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीलास्तैः संसर्गः संवासः कुशीलसंसर्गो रागाविष्टजनसंपर्कः। रायसेवा य-राजसेवा च विषयाथिनो राज्ञामुपश्लोकादिकरणम् । रत्ती विय संयरणं-रात्रावपि संचरणं कार्यान्तरेण निशायां पर्यटनम् । दस-दश । सील-विराहणा-शीलविराधना: । भणिदा-भणिताः प्रतिपादिताः। एते स्त्रीसंसर्गादयो दश शीलविराधना: परमागमे समुक्ता: एतैर्दशविकल्पैः पूर्वोक्तानि चतुरशीतिशतानि गुणितानि चतुरशीतिसहस्राणि भवन्तीति ॥१०३०-१०३१॥ आलोचनादोषान् प्रतिपादयन्नाह
आकंपिय अणुमाणिय जं दिह्र वादरं च सुहुमं च । छण्णं सद्दाकुलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥१०३२॥
ग्रहण करना।
गन्धमाल्यसंस्पर्श-चन्दन, केशर आदि सुगन्धित पदार्थ और मालती, चम्पा आदि मालाओं से शरीर को संस्कारित करना।
शयनासान-कोमल शय्या पर शयन करना तथा कोमल आसन आदि पर बैठना। भूषण-मुकुट, कड़े आदि से शरीर को विभूषित करने की अभिलाषा करना।
गीतवादित्र-षड्ज, ऋषभ आदि गीत की तथा तत, वितत, धन, सुषिर आदि अर्थात् मृदंग, वीणा, ताल, करताल आदि बजाने की इच्छा रखना । रागादि रूप आकांक्षा से नृत्य-गीत आदि देखना सुनना।
अर्थसंप्रयोग-सुवर्ण आदि द्रव्यों से सम्पर्क रखना। कुशील-संसर्ग-कुत्सितशीलवाले अर्थात् राग से संयुक्त जनों का सम्पर्क । राजसेवा-विषय भोगों की इच्छा से राजाओं की स्तुति-प्रशंसा करना। रात्रिसंचरण—बिना प्रयोजन के रात्रि में पर्यटन करना ।
परमागम में ये स्त्रीसंसर्ग आदि दश शील की विराधना कही गयी हैं। इन दश भेदों से पूर्वोक्त चौरासी-सौ को गुणा करने से चौरासी हजार (८४००x१०-८४०००) हो जाते हैं।
आलोचना के दोष बतलाते हैं___ गाथार्थ-आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ये दश आलोचना के दोष हैं ॥१०३२॥
१.क रागाकांक्षया।
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