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________________ शीलगुणाधिकारः ] [ १८५ तव्यः संगुणनीयः ततश्चतुभिरेकविंशतिर्गणिता चतुरशीतिर्भवतीति ॥१०२८।। कायभेदानां स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-- पुढविदगागणिमारुयपत्तेयअणंतकाइया चेव । वियतियचदुचिदिय अण्णोण्णवधाय दस गुणिदा ॥१०२६॥ कायशब्द प्रत्येकमभिसंबध्यते । पथिवीकायिका अप्कायिका अग्निकायिका मारुतकायिकाः प्रत्येक. कायिका अनन्तकायिकाश्चैव। अत्रापि इन्द्रियशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते। द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चेति । अण्णोण्णवधाय-अन्योन्यव्यथिता दर्शते पृथिवीकायिकादयः परस्परेणाहताः सन्तः पूर्वोक्तश्चतुरशीतिविकल्पगणिताश्चतुरशीतिशतभेदा भवन्ति । चतुरशीति: शतेन गुणिता यत एतावन्त एव विकल्पा भवन्तीति ॥१०२६॥ अब्रह्मकारणविकल्पान् प्रतिपादयन्नाह इत्थीसंसग्गी पणिदरसभोयण गंधमल्लसंठप्पं । सयणासणभूसणयं छट्ठ पुण गीयवाइयं चेव ॥१०३०।। प्रत्थस्स संपलोगो कुसीलसंसग्गि रायसेवा य । रत्ती वि य संयरणं दस सीलविराहणा भणिया ॥१०३१॥ इत्थीसंसग्गी-स्त्रीसंसर्गः वनिताभिः सहातीव प्रणयः रागाहतस्य । पणिवरमभोयण-प्रणीतअनाचार है। इन अतिक्रमण आदि चारों से हिंसादि इक्कीस को गुणित करने से चौरासी (२१४४) भेद हो जाते हैं। गाथार्थ-पथिवी, जल, अग्नि, वाय,प्रत्येकवनस्पति,अनन्तकायिकवनस्पति,दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दश को परस्पर गुणित करना ॥१०२६॥ प्राचारवृत्ति-काय शब्द प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए। जैसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येककायिक और अनन्त कायिक । आगे प्रत्येक के साथ इन्द्रिय शब्द लगा लेना चाहिए । जैसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दश को परस्पर गुणित कर देने से अर्थात् इन दश को इन्हीं दश से गुणित कर देने से सौ हो जाते हैं। पुनः इन सौ जीवसमासों को पूर्वोक्त चौरासी से गुणित करने पर चौरासी-सौ (१०x१०४८४) हो जाते हैं। अब्रह्म कारण के भेद बतलाते हैं गाथार्थ-स्त्रीसंसर्ग, प्रणीतरसभोजन, गन्ध-माला का ग्रहण, कोमल शयन-आसन, भूषण, गीत-वादित्र श्रवण, अर्थसंग्रह, कुशील-संसर्ग, राजसेवा और रात्रि में संचरण ये दश शील की विराधना कही गयी हैं ।।१०३०.१०३१॥ प्राचारवृत्ति-स्त्रीसंसर्ग आदि दश कारणों से ब्रह्मचर्य की विराधना होती है। इसे ही बताते हैं स्त्रीसंसर्ग-राग से पीड़ित होकर स्त्रियों के साथ अतीव प्रेम करना। प्रणीतरसभोजन-अतीव लंपटता पूर्वक पंचेन्द्रियों को उत्तेजित करनेवाला आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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