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[ मूलाचारे
पापादानोपकरणकांक्षा । चेव-चैव तावन्त्येव महाव्रतानीति । कोह-कोधश्चंडता । मद-मदो जात्याद्यवलेपः। माय-माया कोटिल्यम् । लोह-लोभो वस्तुप्राप्ती गृद्धिः । भय-भयं त्रस्तता। अरदि-अरतिरुद्वेगः अशुभपरिणामः । रदी-रती रागः कुत्सिताभिलाषः । दुगुंछा-जुगुप्सा परगुणासहनम् । मणवयणकायमंगुलमंगुलं पापादानक्रिया तत्प्रत्येकमभिसम्बध्यते मनोमंगुलं वाङ मंगुलं कायमंगुलं मनोवाक्कायानां पापक्रियाः । मिण्छासण-मिथ्यादर्शनं जिनेन्द्रमतस्याश्रद्धानम् । पमादो--प्रमादश्चायनाचरणं वितथादिस्वरूपं । पिसूणतणं-पैशुन्यं परस्यादोषस्य वा सदोषस्य वा दोषोभावत्वं पष्ठमांसभक्षित्वं । अण्णाणं-अज्ञानं यथावस्थि तस्य वस्तुनो विपरीतावबोधः । अणिग्गहो-अनिग्रहः स्वेच्छया प्रवृत्तिः, इंबियाण-इन्द्रियाणां चक्षुरादीनामनिग्रहश्चेत्येते एकविंशतिभेदा हिंसादयो द्रष्टव्या इति ॥ १०२६-१०२७॥ अतिक्रमणादीनां स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
अविकमणं वदिकमणं अदिचारो तहेव अणाचारो।
एदेहिं चहि पुणो सावज्जो होइ गुणियव्वो ॥१०२८॥ अदिकमणं-अतिक्रमणं संयतस्य संयतसमूहमध्यस्थस्य विषयाभिकांक्षा। वदिकरणं- व्यतिक्रमणं संयतस्य संयतसमूहं त्यक्वा विषयोपकरणार्जनम् । अविचारो-अतिचारः व्रतशैथिल्यं ईषदसंयमसेवनं च । तहण-तथैव। अणाचारो-~-अनाचारो व्रतभंगः सर्वथा स्वेच्छाप्रवर्तनम् । एदेहि-एतैरतिक्रमणादिभिः । चहि-चतुभिः । पुणो-पुनः । सावज्जो-सावधो हिंसाद्येकविंशति । होई-भवति । गणियव्वो-गुणि
सेवन की अभिलाषा मैथुन है। पाप के आगमन हेतुक उपकरणों की आकांक्षा परिग्रह है। ये पांच त्याग हैं। इनके त्याग से पाँच महाव्रत होते हैं। प्रचण्ड भाव क्रोध है। जाति आदि का घमण्ड मान है । कुटिलता का नाम माया है । वस्तुप्राप्ति को गृद्धता लोभ है । त्रस्त होना भय है। उद्वेग रूप अशुभ परिणाम का नाम अरति है। राग अर्थात् कुत्सित वस्तु की अभिलाषा रति है। पर के गुणों को सहन नहीं करना जुगुप्सा है । पाप के आने की क्रिया का नाम मंगुल है। उसे तीनों योगों में लगाएँ । अर्थात् मन की पापक्रिया मनोमंगुल है, वचन की पापक्रिया वचनमंगुल है, और काय की अशुभक्रिया कायमंगुल है । जिनेन्द्र के मत का अश्रद्धान मिथ्यादर्शन है। अयत्नाचार प्रवृत्ति का नाम प्रमाद है जो कि विकथा आदिरूप है। निर्दोष या सदोष ऐसे पर के दोषों का का उद्भावन करना अथवा पृष्ठमांस का भक्षण पैशुन्य है। यथावस्थित वस्तु का विपरीत ज्ञान होना अज्ञान है। चक्षु आदि इन्द्रियों को स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति होना अनिग्रह है। इस प्रकार से हिंसा के ये इक्कीस भेद होते हैं।
अतिक्रमण आदि का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ-अतिक्रमण, व्यतिक्रमण, अतिचार और अनाचार इन चारों से हिंसादि को गुणित करना चाहिए ॥ १०२८ ॥
आचारवृत्ति-संयत समूह के मध्य में रहते हुए भी जो संयत के विषयों की आकांक्षा होती है उसका नाम अतिक्रमण है। संयत के समुदाय को छोड़कर विषयों के उपकरण का अर्जन करनेवाले संयत के व्यतिक्रमण दोष होता है। व्रतों में शिथिलता का होना या किंचित् रूप से असंयम का सेवन करना अतीचार है। व्रतों का भंग होना या सर्वया स्वेच्छा से प्रवर्तन करना
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