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शोलगुणाधिकारः]
इगिवीस चतुर सदिया दस दस दसगा य आणुपुत्वीय ।
हिंसादिक्कमकायाविराहणालोयणासोही॥१०२५॥ इगिवीस-एकेनाधिका विशतिरेकविंशतिः । चदुर-चत्वारः । सदिया-शतं । दश दश दश त्रयो दशानां भेदाः । आणुपुग्वीय-आनुपूर्व्या । हिंसा-प्रमादतः प्राणव्यपरोपणं हिंसा, अत्रादिशब्दो द्रष्टव्यस्तेन हिंसादय एकविंशतिसंख्या भवन्ति । अदिक्कम--अतिक्रमो विषयाणामुपरि समीहा, अत्रापि आदिशग्दो द्रष्टव्योऽतिक्रमादय उपलक्षणत्वादिति। काया-सर्वजीवसमासाः । विराहणा-विराधना अब्रह्मकारणानि । आलोयणा-आलोचना अत्र दोषशब्दो द्रष्टव्य आलोचनादोषाः साहचर्यात् । सोही-शुद्धयः प्रायश्चित्तानि । यथानुक्रमेण हिंसादय एकविंशतिरतिक्रमणादयश्चत्वारः कायः शतभेदा विराधना दश बालोचनादोषा दश शुखयो दशेति सम्बन्ध इति ॥१०२५॥ के ते हिंसादय इत्याशंकायामाह
पाणिवह मुसावा अदत्त मेहण परिग्गहं चेव । कोहमदमायलोहा भय अरदि रवी दुगुंछा य ॥१०२६॥ मणवयणकायमंगुल मिच्छादसण पमादो य ।
पिसुणत्तणमण्णाणं अणिग्गही इंदियाणं च ॥१०२७॥ पाणिवह–प्राणिवधः प्रमादवतो जीवहिंसनम् । मुसावाद-मृषावादोऽनालोच्य विरुद्धवचनम् । अवत्त-अदत्तं परकीयस्याननुमतस्य ग्रहणाभिलाषः । मेहुण-मैथुनं वनितासेवाभिगृद्धिः । परिग्महं-परिग्रहः
गाथार्थ-हिंसा, अतिक्रम, काय, विराधना, आलोचना और शुद्धि ये क्रम से इक्कीस, चार, सौ, दश, दश और दश होते हैं ॥१०२५।।
प्राचारवृत्ति-प्रमादपूर्वक प्राणियों के प्राणों का वियोग करना हिंसा है। विषयों की इच्छा करना अतिक्रम आदि समझना चाहिए। क्योंकि ये हिंसा और अतिक्रम शब्द उपलक्षण मात्र हैं। काय अर्थात् सर्वजीवसमास । विराधना अर्थात् अब्रह्म के दश कारण । आलोचना में दोष शब्द लगाकर साहचर्य से आलोचना के दश दोष ग्रहण करना चाहिए। शुद्धि से प्रायश्चित्त अर्थ लेना चाहिए । उपर्युक्त क्रम से संख्या लगाएँ । जैसे हिंसा आदि इक्कीस भेदरूप हैं, अतिक्रम आदि चार हैं, काय-जीवसमासों के सौ भेद हैं, विराधना-अब्रह्म के दश भेद हैं, आलोचना दोष भी दश प्रकार के हैं एवं शुद्धि के दश भेद हैं। इस तरह ये चौरासी लाख (२१४४४ १००४१०४१०x१० =८४,०००००) गुण होते हैं।
वे हिंसा आदि कौन-कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, अरति, रति, जुगुप्सा, मनोमंगुल, वचनमंगुल, कायमंगुल, मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पिशुनता, अज्ञान और इन्द्रियों का अनिग्रह ये इक्कीस भेद हैं ॥१०२६-१०२७॥
आचारवृत्ति-प्रमादपूर्वक जीव का घात हिंसा है। विना विचारे, विरुद्ध वचन बोलना असत्य है। बिना अनुमति से पर की वस्तु को ग्रहण करने की अभिलाषा चोरी है। स्त्री
१.कप्रमादवतः।
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